कवि शमशेर सिंह जलंधरा "टेंपो" ऐतिहासिक नगरी हांसी , हिसार , हरियाणा । 

पहला पत्थर


प्यार की ,
दुनिया की नींव का ,
पहला पत्थर ,
तुम हो प्रिय ,
चैन नहीं आता ,
जब बेचैन नहीं होता हूं ,
तब भी ।
तुम्हारा दीदार ,
हो गया है करार ,
जाने कैसा जादू है ,
तुम्हारी सूरत में ।
मैं पागल ,
करता हूं आज भी चिनाई ,
मोहब्बत वाली इमारत की ,
तुम्हारी यादों से ।


रचित ---- 27 - 10 - 2017
Mo.  09992318583


नूतन लाल साहू

अब के बसंत
दिखत नइ ये बसंत ह आगे हे
अब जमाना ह,बदल गे हे
सरसो ह पिवरा गे हे
ढंडा ह ढंडा गे हे
प्रकृति के मन म उमंग छागे हे
करा पानी, बरसात हे
दिखत नइ ये बसंत ह आगे हे
जेखर मन जइसे आत हे
ओइसने करत जात हे
माथा धर के,सब गुनत हे
अब का हो ही, आगू
परमाणु बम, अणु बम
रासायनिक बम, बनात हे
कोनो ला कोनो घेपय नहीं
कोनो ला कोनो टोकय नहीं
दुश्मनी मा,मया सना गे हे
दिखत नइये,बसंत ह आगे हे
होरी डांड गड़ागे हे
फागुन महीना ह,आगे हे
कउने रंग,लगा हूं
आसो के,होरी तिहार मा
मोर बुद्धि ह, सठिया गे हे
मनखे मन नगाड़ा न इ बजावत हे
प्रकृति ह फाग के धुन सुनावत हे
दिखत नइये बसंत ह आगे हे
जिहा चिरई चिरगुन करे चाव चाव
जिहा कऊवा मन करे, काव काव
जिहा कोलिहा कुकुर मन करे हाव हाव
उहे बसथे,मोर छत्तीसगढ़ के गांव
अइसन सुग्घर सरग ले सुंदर भुइया मा
असल खुशी ला,भुला गे हे
विदेशी समान ह,छा गे हे
दिखत नइ ये,बसंत ह आ गे हे
नूतन लाल साहू


सुलोचना परमार उत्तरांचली

*कलम आज तू कुछ तो बोल*
*********************


 धरती में जो अन्न उपजाए
अक्सर भूख से मरता वो ।
क्यों रहता वो दीन-हीन यहां
जब सबका पेट है भरता वो ।
क्यों अन देखी होती उसकी
तू ही तो कुछ परतें खोल


*कलम आज तू कुछ तो बोल*


माँ ,बाप को कोई न पूछे
स्वयं पे है अभिमान यहां ।
हैं वो केवल खाली बोतल
लुढ़के हैं वो जहां तहां  ।
उनको भी तो सबक सिखा
बखिया उनकी तू दे खोल ।


*कलम आज तू कुछ तो बोल*



संस्कारों की होली जल रही
मेरे देश में जहां तहां ।
इस  तरह से कैसे होगा
मेरे देश का भला यहां  ।
अपनी भाषा में समझा तू
सबकी आँखे फिर से खोल



*कलम आज तू कुछ तो बोल*



तूने ही इतिहास बदले हैं
तेरे दम से आज़ाद हुए ।
फिर क्यों मौन साधा है
सपने तेरे अब क्या हुए ।
अपने दिल के दर्द को तू
खुल के आज सबसे दे बोल ।


*कलम आज तू कुछ तो बोल*



चीख पुकार मची है देश में
एक दूजे की जान  से खेलें
दिल हैं खिलौने इनके देखो
एक दूजे के दिल से खेलें ।
क्यों होते हैं कत्ल यहां पर
तू भी तो कुछ रहस्य खोल ।


*कलम आज तू कुछ तो बोल*



स्वरचित


🌹🙏 उत्तरांचली 🙏🌹


डॉ सुलक्षणा अहलावत

किसको दोष दुँ मैं दिल्ली में हुए बवाल के लिए,
पत्थर से शहीद हुए अभागी माँ के लाल के लिए।


बोलो क्यों बाँध रखें हैं हाथ इन पुलिस वालों के,
कब तक मरेंगे बेचारे चँद वोटों के सवाल के लिए।


ठोकने दो बिना धर्म देखे इन दंगाइयों को एक बार,
वरना तुम दोषी ठहराए जाओगे इस हाल के लिए।


आज वोटों के लिए सुलगने दे रहे हो तुम देश को,
भूल गए कुर्सी सौंपी थी तुम्हें बस संभाल के लिए।


जो देश द्रोही नाग फन उठाये उसे कुचल दो तुम,
मत इस्तेमाल करो उनको कुर्सी की ढ़ाल के लिए।


कहने वालों की चिंता मत करो, वो कहते ही रहेंगे,
हाथी जाना जाता है अपनी मदमस्त चाल के लिए।


"सुलक्षणा" की मानकर कर जाओ तुम कुछ ऐसा,
इतिहास में जाने जाओ दंगाइयों के काल के लिए।


©® डॉ सुलक्षणा


संजय जैन (मुम्बई)

*घर में है....*
विधा : कविता


आज घर का माहौल,
बदला-2 सा दिख रहा है।
घर में कोई तूफान,
सा छा गया है।
यह मुझे घर का,
माहौल बता रहा है।
और प्रिये तेरी नजरो में, 
भी मुझे नजर आ रहा है।
लगता है पूरी रात,
तुम सोये नहीं हो।
तभीतो चेहरा मुरझाया हुआ,
और घर बिखरा हुआ है।।


कोई बात तेरे दिलमें,
बहुत चुभ रही है।
जो तेरी दिलकी धड़कनों
को, 
तेजी से बढ़ा रही है।
जिससे तेरे चेहरे की,
रंगत उड़ी हुई है।
और मेरी बैचेनी को,
बढ़ा रही है।।


कमाई के चक्कर में,
घर से बाहर चल रहा हूँ।
जिसके कारण परिवार से, 
 दूर होता जा रहा हूँ।
जब से वापिस आया हूँ,
घर में सन्नाटा छाया है।
जो मुझे अपनी गलतीयो का, 
एहसास करा रहा है।।


इस बार घर आने में,
अधिक समय हो गया।
जिससे मिलने नहीं आ सका।
और उसकी इतनी बड़ी सजा,
खुदको क्यों दे रही हो प्रिये।
जबकि गलती सारी मेरी है, 
तो सजा मुझे मिलना चाहिए।
अब हो रहा है मुझे अपनी,
गलतियों का एहसास।
क्या पैसे से पहले है या,
घर परिवार की खुशाली।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
25/02/2020


निशा"अतुल्य"

निशा"अतुल्य"
देहरादून


 आर्य
25/ 2/ 2020


आर्य को आदर्श जान
सद्भावना चले मान
छुआ छात जाने नही
सब को बताइये ।


ब्रह्म होता निराकार 
गायत्री मंत्र साकार
प्राण वायु शुद्ध करो
हवन कराइये।


आहुति सामग्री साथ
धृत तिल मीठा साथ
सब एक साथ डाल 
वायु शुद्ध पाइये।


परहित सदाचार
आर्यजन की पुकार
मिटा कर भेदभाव
गले लग जाइये ।


स्वरचित 
निशा"अतुल्य"


सत्यप्रकाश पाण्डेय

साधक.........


व्याकुल सा रहता अन्तर्मन में,
जब न होता दीदार तेरा।
घेर लेती है आशंकाएं मुझको,
जब मिलता न प्यार तेरा।।


तुम अरुणिमा हृदय गगन की,
मृगमरीचिका मेरा मन।
स्वातिनक्षत्र की बूंद प्रियतमा,
चातक जैसा मेरा मन।।


एक पल का भी विरह तुम्हारा,
होता सहस्राब्दी जैसा।
बिना पावस कृषक की भांति,
हर क्षण त्रासदी जैसा।।


तुम प्रेम पीयूष का कलश प्रिय,
और मैं प्यासा राहगीर।
रजनीश रहित गगन देख कर,
होती है कमोद को पीर।।


तुम हो जीवन आधार प्रेयसी,
तुम ही हो आभूषण मेरा।
तुम से ही है आलोकित हृदय,
तुम भव आकर्षण मेरा।।


मन मन्दिर का विग्रह हो तुम,
मैं प्रिय तेरा आराधक।
शान्त सरोवर अब मेरा हृदय,
बन गया मैं तो साधक।।


सत्यप्रकाश पाण्डेय🍁🍁


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-
    *" बेटियाँ"*
"बेटियाँ तो जीवन में साथी,
प्रभु का दिया हुआ -वरदान।
बेटी ही जीवन में बनती,
घर परिवार का सम्मान।।
माँ -बहन-रूप साथी,
पूजी जाती हैं संतान।
पत्नि रूप में पा कर साथी,
मिटता जीवन का अज्ञान।।
बेटियाँ ही बनाती साथी,
नये नये कीर्तिमान।
यहाँ फिर उपजा नही साथी,
कभी बेटी में अभिमान।।
देती सुख ही सुख जीवन में,
बेटी-बेटा एक समान।
बेटियाँ तो जीवन में  साथी,
प्रभु का दिया हुआ-वरदान।।"
           सुनील कुमार गुप्ता


कालिका प्रसाद सेमवाल मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग (उत्तराखण्ड)

💐🌹सरस्वती --वन्दना🌹💐


जनप्रिय माँ जनोपकारणी
जग जननी, जल जीवधारणी।
स्वर्णिम ,श्वेत, धवल साडी़ में
चंचल, चपल,चकोर चक्षुचारणी।


ज्ञानवान सारा जग करती माँ
अंधकार, अज्ञान सदैव हारणी 
विद्या से करती,जग जगमग
गुह्यज्ञान,गेय,गीत,  गायनी।


सर्व सुसज्जित श्रेष्ठ साधना सुन्दर
हर्षित, हंस-वाहिनी,वीणा वादिनी
कर कृपा,करूणा, कृपाल,कब कैसे,
पल में हीरक---रूप-- प्रदायिनी।


मूर्त ममतामय,ममगात मालती,
जब भटके,तम में माँ तुम्ही संवारिणी,
कितने कठिन, कष्ट कलुषित झेले माँ,
मार्ग प्रकाशित करदे माँ,मोक्षदायिनी।


जनप्रिय माँ जनोपकारणी
जग जननी, जल जीवधारणी। ।
💐💐💐💐💐💐💐💐
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार रुद्रप्रयाग (उत्तराखण्ड)


एस के कपूर* *श्री हंस।बरेली*

*विविध हाइकु।।।।।*



दिया सलाई
यही घर जलाती
या रोशनाई


तेरा लहज़ा
तुम्हें बिगाड़ता भी
या है सहेजा


काम में मज़ा
थकान होती नहीं
न बने सज़ा


झूठा आईना
होता न कभी चाहे
टूटा आईना


तेरा तरीका
तेरी   पहचान  है
तेरा सलीका


संवर जाती
हाथ की लकीरें भी
बदल जाती


घृणा का नर्क
जब मन में बसे
तो बेड़ा गर्क



*रचयिता।एस के कपूर*
*श्री हंस।बरेली*
मो    9897071046
        8218685464


एस के कपूर"श्री* *हंस"।बरेली।

*जीवन बहुत अनमोल है।।*
*।।।।।।।।मुक्तक।।।।।।।।।*


रोज़   धीरे  धीरे    मरना  नहीं
हँस    हँस    कर    जीना   है।


असली  आनंद   जीवन   का
मेहनत    खून    पसीना   है।।


जरा छोड़  कर    देखो अहम
सलीका जीने   का   आयेगा।


प्रभु का मिला वरदान जीवन
एक    अनमोल   नगीना   है।।


*रचयिता।।।एस के कपूर"श्री*
*हंस"।।।।।।।।।बरेली।।।।।।।*


मोब   9897071046।।।।।
8218685464।।।।।।।।।।।


एस के कपूर श्री हंस।* *बरेली।*

*नफरत की आग,प्रेम का जल*
*मुक्तक*


चलो   मनायें   उसको  जो 
घृणा का शिकार है।


महोब्बत   की   तो  उसको 
बेहद     दरकार   है।।


जान ले तेरी  कोशिश असर
करेगी पर धीरे धीरे।


तू करता चल जिंदगी से भी
तेरा   यही करार है।।


*रचयिता।एस के कपूर श्री हंस*
*बरेली*
मो  9897071046
      8218685464


एस के कपूर श्री हंस।* *बरेली।*

*तेरी सोच में हौंसलों की उड़ान हो।*
*मुक्तक*


हौंसलों    में जान   हो तो  मंजिल
अवश्य   मिलती  है।


सपनों   में उड़ान  हो   तो  मंजिल
अवश्य  मिलती  है।।


तेरे    इरादे  इच्छा  शक्ति   ताक़त
रखते हैं कमाल की।


जोशोजनून परवान हो तो मंजिल
अवश्य  मिलती  है।।


*रचयिता।एस के कपूर श्री हंस।*
*बरेली।*
मो   9897071046
       8218685464


सत्यप्रकाश पाण्डेय

भाव अलंकृत कैसे हों
कैसे जीवन का परिष्कार
व्यंजनाएँ मधुमय बनें
दुष्प्रवृत्तियों का बहिष्कार


शुद्ध विचार हों अपने
अन्तर्मन सौम्यता परिपूर्ण
रहे जाग्रत विवेक सदा 
आध्यात्म भाव से संपूर्ण


त्याग भरी जीवन शैली
परोपकार का लिए संकल्प
ममत्व समत्व से पूरित
सुरभित मन दुःख न अल्प


दुखानुभूति से परे रहें
निर्मल चित्त हो उदार मना
हे करुणामय गोविंद
तव चरणों में है यही सना।


सत्यप्रकाश पाण्डेय


राजेंद्र रायपुर

हर भारतीय के दिल की आवाज,
            गीतिका छंद के रूप में --


बोल उनके सच कहें तो, 
                   अब हमें भातें नहीं।
सह रहे चुपचाप लेकिन,
                   हम पचा पाते नहीं।


शूल शब्दों के हमेशा, 
                     ही चुभाए जा रहे।
गालियाॅ॑ भी रोज़ उनकी, 
                  बेवजह हम खा रहे।


बेवजह  हर  दिन तमाशा, 
              यार कब तक हम सहें।
खून खौले देख सब कुछ,
              चुप कहो कब तक रहें।
मत बढ़ाएं बैर हमसे, 
                  है विनय उनसे यही।
राह टेढ़ी यदि चलेंगे, 
                  हम दिखा देंगे सही।


            ।। राजेंद्र रायपुर।।


श्याम कुँवर भारती (राजभर ) कवि /लेखक /गीतकार /समाजसेवी

भोजपुरी देवी गीत-3-दे दा दरसनवा माई |
तोहरे चरनिया अइली माई ,
बनिके भिखरिया न हो |
दे दा दरसनवा माई,
 भरी के नजरिया न हो |
चरण के धूर माई सिरवा चढ़ाई |
धोई के चरनिया माई अमरित बनाई |
 दे दा दरसनवा माई,
अइली माई के नगरिया न हो |
अपने बलकवा गोदीया उठाला |
सगरो जनमवा माई पपवा मिटा ला |
करी दा जतनवा माई ,
सवारा मोर ऊमीरिया न हो |
तोहरे कीरपा दुख दूर होई जाई |
पूरा होई मनसा सफल जिंनगी होई जाई |
खोला तू नयनवा माई ,
खोला तू नयनवा माई ,
मिटावा दुख  शारीरिया न हो |
दे दा दरसनवा माई,
 भरी के नजरिया न हो |
श्याम कुँवर भारती (राजभर )
कवि /लेखक /गीतकार /समाजसेवी ,मोब 9955509286


प्रिया सिंह लखनऊ

शहर की सड़कों पर वो अदाकारी दिखाती है 
पतली सी रस्सी पर वो कलाकारी दिखाती है


नाजुक से पैरों में उसके छाला मोटा दिखता है
मासूमियत के पीछे से वो होशियारी दिखाती है


चढ़ कर रस्सी पर आसमान छूने का हौसला है
नज़ाकत बेच कर यहाँ वो रोजगारी दिखाती है


छिप छिपा कर कभी पढ़ते भी देखते हैं  उसे
भविष्य के साथ अपने ईमानदारी दिखाती है 


गंवार भले है वो दुनिया भर की नजरों में आज
नन्हें कदमों से चल कर दुनियादारी दिखाती है 


 


Priya singh


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज" रचना: मौलिक(स्वरचित) नई दिल्ली

दिनांक: २४.०२.२०२०
वार: सोमवार
विधा: गीत
विषय: नीर
शीर्षक: मैं आंखों का नीर हूं
मैं आंखों का नीर हूं,
मैं जीवन का सार हूं,
नित अविरल निर्मल बहता जल,
ममता मधुरिम प्रीत बहार हूं।
अश्क नैन बनकर निर्झर मैं
प्रीत मिलन इज़हार हूं,
विरह राग अनुराग बिम्ब बन ,
साजन मन उपहार  हूं। 
हरित भरित वसुधा कर सिञ्चित,
काली घटा जलधार हूं।
नीर नैन रसधार सुधा बन,
ग़म खुशियों का एतवार हूं,
जीवन हूं मनमीत बना मैं ,
तन जीवन संचार हूं।
नीर नयन मां पूत प्यार का,
बन गंगा पावन  स्नान हूं। 
भींगी पलकें  नीर नैन से ,
चाह मनौती मनहार हूं,
निश्चल नित अन्तस्तल भावित
स्नेहिल अपनापन साथ हूं।
रागी मैं अनुरागी हम दिल,
कशिश इश्क अहसास हूं ,
नीर बना मैं दुख का बदला, 
मानवता  आधार हूं।
बच्चों की आंखों का मोती ,
इच्छापूरक  हथियार हूं,
वशीकरण प्रियतम भावुक मन ,
नीर चक्षु बन करुणाकर अवतार हूं। 
मिलन प्रीत अरमान बना मैं ,
कामुकता  प्रतीकार हूं , 
विरहानल तपती ज्वाला रति ,
प्रिय कामदेव  अभिसार हूं।
परिधानों से सजी अलंकृत,
नैन अश्क कजरार हूं ,
मादक मैं मोती की बूंदे ,
उर त्रिवली का जलधार हूं।
भींगी कंचुकी मिलन आस में ,
नित चारु  हृदय  उद्गार  हूं , 
मानक हूं मनमीत प्रेम का ,
धवल  चन्द्र    शृंगार हूं। 
नीर क्षीर सागर सरिता जल,
पय तोय उदक जीवन समझो,
सप्त सरित् का पूत सलिल मैं , 
बह श्रान्त क्लान्त सुखसार  हूं । 
माध्यम नित पीड़ित अवसीदित, 
मझधार  नीर पतवार हूं।
खुशियों का मुस्कान बना मैं ,
माध्यम प्रकटन प्रतिहार हूं। 
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचना: मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली


सुनील चौरसिया'सावन' प्रवक्ता, केंद्रीय विद्यालय टेंगा वैली, पश्चिम कमेंग, अरूणाचल प्रदेश।

 


कविता- फिसल गयी जिंदगी...


समय की रेत पर फिसल गयी जिंदगी।
देखते ही देखते में ढल गयी जिंदगी।।


करवटें बदल-बदल सोया निशदिन,
अंत में करवट बदल गयी जिंदगी।।


दुल्हन जस सजाकर रखा था इसे,
हाथों से यूं ही निकल गयी जिंदगी।।


हवा से बचा कर रखा था सुरक्षित ,
रखे-रखे बर्फ जस गल गयी जिंदगी।।


मौत के ताप से तप कर 'सावन',
मोम जस यूं ही पिघल गयी जिंदगी।।


हर पल जिंदगी को छलता रहा,
अंत में मुझको ही छल गयी जिंदगी।।


समय की रेत पर फिसल गयी जिंदगी।
देखते ही देखते में ढल गयी जिंदगी।।


          - सुनील चौरसिया 'सावन'
            अमवा बाजार, रामकोला,
            कुशीनगर, उत्तर प्रदेश।
            9044974084, 
            8414015182


भरत नायक "बाबूजी" लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)

*"परछाई"* (दोहे)
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
●अंतर्मन का बोध है, परछाई-प्रतिभास।
मौन लगे संकेत यह,
जाल-जगत परिवास।।


●मान कलाकृति प्रकृति की, परछाई भव-भान।
साथ सुसज्जित सर्वदा, मूर्त रूप सम जान।।


●परछाई क्षण भूत सम, होता है आभास।
व्यापित भय हिय हो कभी, दूर कभी कब पास।।


●परछाई लगती कभी, गुप्त भाव गढ़-गूढ़।
उत्साहित करती हिया, लागे कब मन-मूढ़।।


●परछाई पहचान बन, दे कब सुख कब शोक।
छाया-प्रतिछाया छले, जागृत जैविक लोक।।


●मेरी परछाई कभी, मुझसे करे सवाल।
कौन कहाँ तुम और मैं? जानो जग-जंजाल।।


●मेरी परछाई लगे, मुखरित मानस मौन।
अन्य किसी का भान-भय, हावी मुझ पर कौन??


●पति-पत्नी हैं साथ में, छाया-पूर्ण-प्रमाण।
 पूरक दोनो आप हैं, एक लगें दो प्राण।।


●परछाई में है लगे, संचित अद्भुत भाव।
संशय सह संभावना, चालित जीवन-नाव।।


●पूर्ण ब्रह्म परछाइयाँ, जीवात्मा जग जान।
पूरक पाये पूर्णता, मानव मन मनु मान।।
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


कवि शमशेर सिंह जलंधरा "टेंपो" एतिहासिक नगरी हांसी , हिसार , हरियाणा ।

गज़ल


दिल में पल-पल जो समाया जाए ।
फिर खुदा उसको बताया जाए ।।


बस चुका है दिल की धड़कन में जो ,
किस तरह से उसको भुलाया जाए ।


चैन आए साथ से गर तुझको ,
खूब अपनापन जताया जाए ।


जी वो तो है तैयार मरने को ,
खुद को भी तो आजमाया जाए ।


कारगर हो गर दुआ इस दिल की ,
क्यों नहीं फिर सर झुकाया जाए ।


शाम जैसे हो चली , पीने का ,
बस बहाना फिर बनाया जाए ।


कर चुके तोबा नहीं पिएंगे ,
कौन मुंह से कब उठाया जाए ।


*रचित* ---- 08 - 09 - 2009 
मो. 09992318583


नूतन लाल साहू

अन्तिम सत्य
स्वीकार करो,प्रभु की सत्ता को
मानव तू, सर्वशक्तिमान नहीं है
सदा करो,भक्ति प्रभु की
धुन में हो जा,मतवाला
मस्त हुये,प्रहलाद को देखो
खंभे में ईश्वर को दिखा डाला
स्वीकार करो प्रभु की सत्ता को
मानव तू,सर्वशक्तिमान नहीं है
समझा मन को,मीठा बोल
वाणी का, बाण बहुत बुरा है
दीनानाथ दयानिधि स्वामी
भक्तो का दुख़, हर लेता है
स्वीकार करो प्रभु की सत्ता को
मानव तू,सर्वशक्तिमान नहीं है
मस्त हुए तुलसी को देखो
रामायण को,रच डाला
मस्त हुए हनुमान को देखो
उर में राम को,दिखा डाला
स्वीकार करो,प्रभु की सत्ता को
मानव तू सर्वशक्तिमान नहीं है
अति दुर्लभ,मानव तन पाकर
खो मत जाना, स्वारथ के संसार में
प्यारे प्रभु से,यदि प्रीति करे तो
हो जायेगा, भव सागर पार
स्वीकार करो,प्रभु की सत्ता को
मानव तू,सर्वशक्तिमान नहीं है
जगत में जीवन है, दिन चार
सुमिरन कर ले,हरिनाम
सत्य धर्म से करो कमाई
तेरा होगा,सूखी संसार
स्वीकार करो प्रभु की सत्ता को
मानव तू,सर्वशक्तिमान नहीं है
नूतन लाल साहू


     कुमार कारनिक  (छाल, रायगढ़, छग)


     कुमार कारनिक
 (छाल, रायगढ़, छग)
""""""""
     मनहरण घनाक्षरी
       *मेरी परछाई*
        """""""'"""''"""""
मेरी     परछाई    यहां,
बैठ     सुखदाई   यहां,
देता  फूल - फल  सब,
       सुकून मिलता है।
🌳
बीज   से   पेड़  तैयार,
बन   जाओ  होशियार,
मुझसे  ही  तो  दुनियां,
     सासों मे बसता है।
🌴
नही   काटो  बंधु  मुझे,
मेरे  लिए  क्यों  उलझे,
मुझसे   ही  आसियानें,
        जंगल कहता है।
🌳
है पति पत्नी की छाया,
है सब रिश्तों की माया,
तेरी     मेरी     परछाई,
        मन में बसता है।


              🙏🏼
                 *******


रेनू द्विवेदी लखनऊ

"गीत"


वेदना संवेदना तुम,बंदगी परमार्थ हो तुम! 
वायु हो तुम प्राण हो तुम, प्रेम का भावार्थ हो तुम !


लिख रही हूँ मै तुम्हे ही,
मुक्त होकर बन्धनों से!
पढ़ रही हूँ मै तुम्हे ही,
लो सुनो खुद धड़कनो से!


शब्द के ब्रह्माण्ड में प्रिय, दिव्य सा शब्दार्थ हो तुम !
वायु हो तुम प्राण ------


काव्य की निज साधना में,
 प्रेम है प्रियतम तुम्हारा!
मृत्यु का अब भय नही है,
मिल गया मुझको किनारा!


प्रेम पथ पर चल पड़ी हूँ, जिंदगी के पार्थ हो तुम !
वायु हो तुम प्राण की--------


प्रेम ही है प्राण -धन औ,
धर्म  का भी सार है ये!
प्रेम जीवन में नही यदि,
तो वृथा संसार है ये!


स्वार्थमय है यह सकल जग, सिर्फ प्रिय निस्वार्थ  हो तुम !
वायु हो तुम प्राण --------


भूमि से लेकर गगन तक,
प्रेम का वातावरण है!
अब प्रणय के गीत गूंजे,
प्रेम का ही व्याकरण है!


जो पढ़े उसको विदित हो, सृष्टि का निहितार्थ हो तुम!
वायु हो तुम प्राण ------- 


    "रेनू द्विवेदी"


डॉ.राम कुमार झा "निकुंज" रचना: मौलिक (स्वरचित) नई दिल्ली

स्वतंत्र रचना 
दिनांक: २४.०२.२०२०
वार: सोमवार
विषय: आराधना
विधा: गीत 
शीर्षक: 🌹आराधना मां भारती 🌹
आराधना  नित  साधना  सुंदर  सुभग  मां  भारती,
स्वप्राण  दे  सम्मान  व  रक्षण   करें  बन   सारथी। 
समरथ बने  चहुंओर  से जयगान  गुंजित यह धरा,
हो श्यामला कुसमित फलित नित अन्नदा भू उर्वरा।
आराधना नित साधना ....


जीवन वतन बन शान हम अरमान हैं  नित राष्ट्र के,
उत्थान हो विज्ञान का अनुसंधान नव कृषि भारती।
शिक्षा सदा सब जन सुलभ नैतिक सबल मानव बने,
समरस सुखी अस्मित मुखी प्रमुदित करें मां आरती।
आराधना नित साधना .... 


निर्भेद नित समाज हो बिन जाति धर्म भाषा विविध,
चलें प्रीति सब सद्नीति पथ संकल्प दृढ़ संकल्पना।
सीमा सतत् रक्षण यतन तन मन समर्पित  हो वतन,
रूहें कंपे  द्रोही वतन आतंक पाप खल नर वासना।
आराधना नित साधना ....


दुर्गा समा निर्भय सबल महाशक्ति बन विकराल  हो,
नारी  सतत  बहुरूपिणी जगदम्ब  वधू भगिनी सुता।
सम्पूज्य नित आराध्य जग चिर देव दानव मनुज हो,
कोमल हृदय भावुक प्रकृति ममता मनोहर भाषिता। 
आराधना नित साधना ....


न दीन हो बलहीन जग सब शिक्षित सबल सुख सम्पदा
निर्भीत मन निज  कर्म रथ चल निज ध्येय पथ पर  बढ़े।
मर्यादित विनत सदाचार युत संस्कार  शुचि जीवन  बने।
श्रवण चिन्तन मनन भावन वाणी प्रकटिता स्नेहिल प्रदा।
आराधना नित साधना .... 


धारा बहे  अविरल  वतन  नित  सद्भाव  समरस  निर्मला,
हो नाश  सब  विभ्रान्त जन  विद्वेष  लालची मन  बावला।
जीवन बने भारत उदय सद्भक्तिमय लक्ष्य  स्नेहिल सर्वदा,
आएं मिलें जन-गण-वतन पूजन करें आराधना मां भारती।।
आराधना नित साधना .... 


जनतंत्र  हो  गुंजित  जगत  जय  मां   भारती  जयगान  से।
मानक बने सौहार्द का नीति सबल सुख सम्पदा उत्थान से। 
शक्ति भक्ति युक्तिपथ सह विवेक परहित बने जन  चिन्तना,
सत्य शिव सुन्दर मनोरम तिरंगा वतन मां भारती आराधना।
आराधना नित साधना ....
डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"
रचना: मौलिक (स्वरचित)
नई दिल्ली


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