*"परछाई"* (दोहे)
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●अंतर्मन का बोध है, परछाई-प्रतिभास।
मौन लगे संकेत यह,
जाल-जगत परिवास।।
●मान कलाकृति प्रकृति की, परछाई भव-भान।
साथ सुसज्जित सर्वदा, मूर्त रूप सम जान।।
●परछाई क्षण भूत सम, होता है आभास।
व्यापित भय हिय हो कभी, दूर कभी कब पास।।
●परछाई लगती कभी, गुप्त भाव गढ़-गूढ़।
उत्साहित करती हिया, लागे कब मन-मूढ़।।
●परछाई पहचान बन, दे कब सुख कब शोक।
छाया-प्रतिछाया छले, जागृत जैविक लोक।।
●मेरी परछाई कभी, मुझसे करे सवाल।
कौन कहाँ तुम और मैं? जानो जग-जंजाल।।
●मेरी परछाई लगे, मुखरित मानस मौन।
अन्य किसी का भान-भय, हावी मुझ पर कौन??
●पति-पत्नी हैं साथ में, छाया-पूर्ण-प्रमाण।
पूरक दोनो आप हैं, एक लगें दो प्राण।।
●परछाई में है लगे, संचित अद्भुत भाव।
संशय सह संभावना, चालित जीवन-नाव।।
●पूर्ण ब्रह्म परछाइयाँ, जीवात्मा जग जान।
पूरक पाये पूर्णता, मानव मन मनु मान।।
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भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
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