कालिका प्रसाद सेमवाल रुद्रप्रयाग

*त्याग और समर्पण करता है पिता*


*****************


पिता परिवार की आस होता है,


पिता परिवार का विश्वास होता है,


पिता ही परिवार को नसीहत देता है,


पिता परिवार की जिम्मेदारी उठाता है।


 


पिता ही पुत्र का जन्म दाता होता है,


पिता ही पुत्र को अंगुली पकड़कर चलना सिखाता है,


पिता से ही हम अपनी मांगें पूरी कराते हैं,


पिता ही परिवार को अनुशासन में रखता है।


 


पिता परिवार के लिए रात दिन मेहनत करता है,


पिता ही बच्चों को नई दिशा देता है


पिता परिवार की हर मांग पूरी करता है।


पिता कभी भी खुलकर प्रेम प्रदर्शित नहीं करता है।


 


 


पिता परिवार का सारथी होता है,


पिता परिवार के लिए मर मिटता है,


पिता ही परिवार के लिए जिम्मेदारियों का बोझ उठाता है,


पिता ही परिवार को अंधेरे से उजाले में लाता है।


 


पिता के नाम से ही परिवार की पहचान बनती है,


पिता ही परिवार का बिछौना होता है


पिता ही बच्चों के लिए खिलौना लाता है


पिता है तो हर सपना अपना है।


********************


कालिका प्रसाद सेमवाल


मानस सदन अपर बाजार


रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


डॉ0हरि नाथ मिश्र                          

*गीत*(16/14,लावणी छंद)


पिया-मिलन को चली बावरी,


कंटक से परिपूर्ण डगर।


पता नहीं है देश पिया का-


चलती जाए इधर-उधर।


       पिया-मिलन को चली बावरी,


       कंटक से परिपूर्ण डगर।।


 


प्रेम दिवाना,पगला-पगला,


लक्ष्य प्रेम का प्रियतम है।


लोक-लाज की भौतिक-बाधा-


करती राहें दुर्गम है।


प्रियतम से मिलने को फिर भी-


जाती पगली नगर-नगर।


       पिया-मिलन को चली बावरी,


       कंटक से परिपूर्ण डगर।।


 


पग में घुँघरू बाँध बवरिया,


अल्हड़ यौवन-बोझ लिए।


अनजाने-पथरीले पथ पर,


मिलन-आस निज हृदय लिए।


बढ़ती जाए बेसुध आँचल-


बिना कहे कुछ अगर-मगर।


          पिया-मिलन को चली बावरी,


           कंटक से परिपूर्ण डगर।।


 


प्रेम-रंग में रँगी रँगीली,


चलती जाए मतवाली।


नहीं भूख रोटी की उसको,


प्यास न निर्झर-जल वाली।


भूख-प्यास तो देह-पिपासा-


उसपर करती नहीं असर।


        पिया-मिलन को चली बावरी,


        कंटक से परिपूर्ण डगर।।


 


स्वाति-बूँद की चाहत में तो,


चातक विकल सदा रहता।


नदी-नीर हो व्यग्र-दिवाना,


जा बह सिंधु-गले मिलता।


मिलन-अमिय-सुख पाकर पगली-


चाहे करना प्रेम अमर।।


       पिया-मिलन को चली बावरी,


       कंटक से परिपूर्ण डगर।।


 


उसे मिलेंगे सजना उसके,


आज नहीं तो निश्चित कल।


इसी लिए तो अस्त-व्यस्त वह,


फिरे खोजती हुए विकल।


जीवन का उद्देश्य यही है-


मिलन सजन सँग अंत पहर।


       पिया-मिलन को चली बावरी,


       कंटक से परिपूर्ण डगर।।


                      ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                          9919446372


अविनाश सिंह

🌱🌱 *हाइकु* 🌱🌱


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प्रकृति हवा


मिलती हैं जहाँ


रहना वहाँ।


 


पाखंडी लोग


बदलते है भेष


फैलाते द्वेष।


 


पावन गंगा


धोती सभी के पाप


करे विलाप।


 


मिले जो रोटी


न चावल न बोटी


ग़रीबी होती।


 


तारे हज़ार


गिनूं मैं हर बार


व्यर्थ कार्य।


 


फूल सी कली


जंगल में है मिली


खून से सनी।


 


बेटी की शिक्षा


काम काज की दीक्षा


नकली शिक्षा।


 


गोद में पली


ससुराल में जली


पेड़ पे मिली।


 


रोटी आचार


नही कोई विचार


गरीब लाचार।


 


बून्द-समुद्र


मिट्टी से बने घर


ये याद रख।


 


बेटी पढ़ाओ


झाड़ू पोछा कराओ


आगे बढ़ाओ।


 


कड़ी धूप में


सींच रहा है खेत


खून से रेत।


 


*अविनाश सिंह*


*8010017450*


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार 27 मई 2020

दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


लक्ष्मीपुर, महराजगंज, उत्तर प्रदेश


शिक्षा -स्नातक, बीटीसी


व्यवसाय - अध्यापन


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1- मजदूरों की मजबूरी


 


मजदूरों की मजबूरी का खेल निराला है,


डट जाए कर्तव्य पथ पर सब कर जाता है।


 


प्रतिपल भीग पसीने से


कांटों में राह बनाता है


खेतों से खलिहानों तक


नई इबारत लिखता जाता है।


 


परिवारों के लालन - पालन में


गांवों से शहरों की बाट बनाता है


अपने शिल्पी खून पसीने से 


मंजिल दर मंजिल बनाता है।


 


मजदूरों की मजबूरी का खेल निराला है,


डट जाए कर्तव्य पथ पर सब कर जाता है।


 


हांक हांक कर रिक्शा गाड़ी


पसीने से तर-बतर होता जाता है


पत्थर कोयला तोड़कर लाख बना


भठ्ठों पर पसीने से ईंट पकाता है।


 


कहाँ देखकर जीवन संघर्षों की मेहनत कश


 सूरज अपनी तपिश से ठंडी बयार चलाता है


 


मजदूरों के नितनव शिल्पों के बदले


कौन पुरस्कृत कर उत्साह बढ़ाता है 


पत्थर बनकर दु:ख दर्द झेलता


व्याकुल हो तिरस्कारों में मन बहलाता है।


 


ऊंचे रख सदा इरादे साहस कभी न खोता है


गिरकर उटता उठकर चलता सांसों से प्यास बुझाता है।


 


         दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


      लक्ष्मीपुर, महराजगंज, उत्तर प्रदेश ।


 


2 - तुझको नमन हे ! पृथ्वी माता।।


 


तेरे सुमन से जग विख्याता


तुझको नमन हे ! पृथ्वी माता।।


 


स्वच्छ सांची से तन-मन को,


पुलकित करने वाली है


तेरी ममता की छावों में


हरे भरे वृक्षों कि 


शोभा बड़ी निराली है 


जल जीवन तेरा सबको भाता


तुझको नमन हे ! पृथ्वी माता।।


 


शस्य श्यामला धरा कहीं पर


कहीं पर्वत और पठार है


तेरी गोदी में श्रीराम का तीरथ


तूँ सबसे बड़ी ममता सी कीरत


तेरे दिये समीर से सब जन


जग में जीवन की प्यास बुझाता 


तुझको नमन हे ! पृथ्वी माता।।


 


भले आसमाँ अनेक रंग धरे 


तुझको ही सब सुहाता है


कौन सा जीव किस तरह बने


तूँ जननी बन जन्माती है


"व्याकुल" विनय करता है


करें न हम तुझको खंडित


यह स्वच्छ भाव मन में आता


तुझको नमन हे ! पृथ्वी माता।।


 


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


लक्ष्मीपुर, महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


 


 


3- पुस्तक को भूलना नहीं।।


 


भूलो सभी को मगर


पुस्तक को भूलना नहीं।।


 


भूलो सभी को मगर


पुस्तक को भूलना नहीं।


परोपकार अगणित हैं इसके


इस ज्ञान को भूलना नहीं


अमिय पिलाती है हमें


जग में कालकूट घोलना नहीं


पुस्तक को भूलना नहीं ।।


 


श्री कृष्ण ने गीता दिया


दिगदिगांत के लिए किया नहीं


परिवर्तनों की प्रविधियाँ हो रही


संदेह की गुंजाइश दिया नहीं 


विद्वता की राह को प्रशस्त कर


आत्मज्ञान को भूलना नहीं


पुस्तक को भूलना नहीं ।।


 


पूरे करो अरमान अपने 


क्षितिज सा दान भूलना नहीं


लाखों कमाते हो भले


अभिज्ञान को भूलना नहीं 


ज्ञान बिन सब राख है


इस मद में फूलना नहीं


पुस्तक को भूलना नहीं।।


 


जैसी करनी वैसी भरनी


इसके न्याय को भूलना नहीं


संस्कृति का आध्यात्म है


इसे कभी छोड़ना नहीं


कलम का सिपाही बनाती


इसके मान को भूलना नहीं


पुस्तक को भूलना नहीं।।


 


सरस्वती का चिरकाल तक वास इसमें


"व्याकुल" ज्ञान - वन्दना भूलना नहीं


भूलो सभी को मगर


पुस्तक को भूलना नहीं ।।


 


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


लक्ष्मीपुर, महराजगंज, उत्तर प्रदेश


 


4- मैं स्वयं से संवाद करता हूँ..


 


    मैं,


स्वयं से संवाद करता हूँ 


कभी - कभी किसी 


विशेष मुद्दे पर 


गम्भीर वाद - विवाद करता हूँ 


हो गयी जो गलतियां अतीत में 


उनका पश्चाताप करता हूँ 


         मैं,


स्वयं से संवाद करता हूँ । 


 


मेरा साथी अपना 


     बातें मैं


इससे दिनरात करता हूँ 


अपनी आत्मा का बनूँ दर्पण मैं


पारदर्शी हो मेरा अस्तित्व


ऐसा अडिग प्रयास करता हूँ 


        मैं,


स्वयं से संवाद करता हूँ । 


 


कदाचित विचलित होऊँ 


समय के विलोम प्रभाव से 


इस हेतु बनाने को सम्बल 


अपने पौरूष का 


स्वयं से वादाकार करता हूँ 


        मैं,


स्वयं से संवाद करता हूँ ।


 


 


जीवन, के ख़ौफ़ ने सड़कों को 


     वीरान कर दिया


समय चक्र ने ज़िंदगी को 


     हैरान कर दिया


सामाजिक विसंगतियों के 


आतंक से "व्याकुल"


स्वयं को दो-चार करता हूँ


     मैं,


स्वयं से संवाद करता हूँ।


 


  दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल 


लक्ष्मीपुर - महराजगंज, उत्तर प्रदेश


 


5-एक सच्चा कवि हूँ....


 


एक सच्चा कवि हूँ


खुशबू को छोड़ सभी हूँ


गोबर जैसा पोताड़ा हूँ


जंधिये का नाड़ा हूँ 


कविता का बिगाड़ा हूँ 


रवि की पकड़ से दूर का सभी हूँ


एक सच्चा कवि हूँ।।


 


झूठ बोलता नहीं 


सच्चाई मेरा रास्ता नहीं 


साहित्य से कोई वास्ता नहीं


उट - पटांग कविताओं का जन्मदाता हूँ 


प्रतिभा का समेशन कर बना कवि हूँ 


बाथरूम से निकला अभी हूँ


एक सच्चा कवि हूँ ।।


 


बे पेदीं का लोटा हूँ


टूटे हुए सोल का फटा हुआ जूता हूँ


प्रत्येक कविता का सर्जरी कर 


मार्ग से भटका देता हूँ 


कविता - लिख सुनाने का चेष्टा करता हूँ 


साहित्य का सफोकेटा हूँ - 2 


ये मेरी पुरानी बिमारी है 


मैं डाक्टरों के लिए परेशानी हूँ


इस देश में पागल खाने हैं कम 


पागल हैं ज्यादा 


इसीलिए कविता करने पर हूँ आमादा


काव्य - दंगल का कभी 


न दूर होने वाला डिफेक्ट हूँ 


आधुनिक कवि के 


चरित्र में हमेशा परफेक्ट हूँ


इस कारण 


माइन्ड का दिल से कनेक्श नहीं


प्रेम-पूजा, साहित्य सेवा 


भक्ति - साधना से दूर टेन्शन हूँ 


साहित्यिक समाज को 


चालने वाला दिमक भी हूँ


   एक सच्चा कवि हूँ।।


 


प्रत्येक मजबूत दिवार का कमजोर बेस हूँ


न साहित्य जानता हूँ


न साहित्यितक कवि हूँ 


बचा हुआ शेष हूँ 


और प्राचीन साहित्यिक असभ्य 


कवियों का अवशेष हूँ


देखो अगर ध्यान से 


मैं साहित्यिक सफोकेशन हूँ


कविता का हेजीटेशन हूँ


कवि - मंच पर रहता परमानेन्ट हूँ


श्रोताओं के लिए एक्सीडेन्ट हूँ


बिलीव मी


मैं साहित्यिक डिफाल्टरों के लिए


सफाईस एनारकी हूँ


एक सच्चा कवि हूँ।।


 


मुझसे मिलना है या मेरा पता चाहिए 


तो जिला है पातालपुर


जहर डाकखाना 


डाकखाने से सीधा आगे आइये 


आके खाइये और चाय की तरह पी जाइये


कविता रूपी जहर डाकखाना


सीधा - सीधा कवि हूँ


या भईया हूँ पागल लोक का


कहते हैं मेरा नाम है कवि व्याकुल 


निवासी हूँ कविरूपी यमलोक का।


 


दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


लक्ष्मीपुर, महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


दयानन्द त्रिपाठी महराजगंज

सरस्वती वन्दना


 


हे! गणपति गणनायक तुझे कोटि - कोटि प्रणाम।


हे! गौरी सुत सुमरिन कर तेरा शुरू करूँ हर काम।।


 


 


हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी 


हे आशिर्वचनों की वरदायिनी


मेरा मन प्रकाशित कर दे माँ,


तूँ व्याकुल को ऐसा वर दे माँ।


पाकर विद्या ज्योति मैं माँ तेरी,


कुबुद्धि अज्ञानता स्वाब कर मेरी।


मैं अबोध तेरी शरणों में आया,


तेरा पुजारी हूँ माँ बदलो मेरी काया।


काम, क्रोध, मोह, लोभ सब तेरी माया,


अवगुण मिटा, कर दे ज्ञान की छाया।


तूँ स्वर की देवी तुझसे गीत-संगीत माँ,


मेरे हर शब्द को परिपूर्ण कर दे माँ।


नहीं चाहिए धन धान्य यश सम्मान पाऊँ,


पाकर चरण रज माँ मैं तर तर जाऊँ।


बस यही कामना तेराभक्त कहलाऊँ,


करता रहे अभ्यास निरन्तर तेरी सेवा पाऊँ।


हे! माँ शारदे इतनी कृपा कर वर दायिनी ,


विद्या ज्योति जगाकर ज्ञान दे ज्ञान स्वामिनी।


 


रचना दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल


 


लक्ष्मीपुर महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


सुनीता असीम

प्यार का अब नहीं असर बाकी। 


 


एक ही रह गया पहर बाकी।


 


***


 


तुम न देखो मेरी तरफ ऐसे।


 


लग रहा है रही। शरर् बाकी।


 


***


 


आज अरमान हो गए पूरे।


 


कुछ नहीं रह गई कसर बाकी।


 


***


 


इस मुहब्बत के आम चर्चे हैं।


 


कुछ नई है नहीं ख़बर बाक़ी।


 


***


 


आग दोनों तरफ लगी ऐसी।


 


कुछ इधर और कुछ उधर बाक़ी।


 


***


 


सुनीता असीम


 


२७/५/२०२०


काव्य रँगोली आज के सम्मानित रचनाकार 17 मई 2020

डॉ सरोज गुप्ता 
अध्यक्ष हिन्दी विभाग,
पं दीनदयाल उपाध्याय,शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय 
सागर म प्र
पिनकोड --  470001


 


कविताये


1--जन्मदात्री मां


डॉ सरोज गुप्ता, सागर म प्र
 
जन्मदात्री माँ !एक विश्वास है श्रद्धा है भक्ति है । 
जन्मदात्री माँ !सारा जहां है एक सम्पूर्ण सृष्टि है।
जन्मदात्री माँ !स्नेहरुपा है, वाग्मी,लक्ष्मी, अन्नपूर्णा है।
जन्मदात्री माँ! त्रिपुरमालिनी है, कल्पवृक्ष, कामधेनु है।
जन्मदात्री मां ! के बिना सारा संसार, आधा है अधूरा है।
जन्मदात्री माँ !के आँचल में बस प्यार ही प्यार समाया है ।
इस प्यार को माँ जब-जब जितना जितना लुटाती है ।
मां का प्यार हजारों-हजार गुना बढता ही जाता है ।
जन्मदात्री माँ ! हर बच्चे की किस्मत है, जिंदगानी है।
जन्मदात्री माँ!से सारा जहाँ जगमग  है, खुशहाली है।
माँ  के रहते घर की सारी अलायें बलायें हट जाती हैं।
जन्मदात्री माँ ! की यादों से पुस्तकें भी कम पड़ जाती।
जन्मदात्री माँ है तो हम हैं, माँ के बिना ये दुनिया कम है ।
जन्मदात्री माँ ! है खुशियों का पिटारा, जीवन में न गम हैं।
दोनों माँएं  (सास माँ-जन्मदात्री माँ)रहें स्वस्थ व प्रसन्न ।
उनकी सेवा करते बीते, जीवन में न हो कभी खिन्न मन।


 



  2--आज हुए असहाय हाय हम!!
  
                        डॉ सरोज गुप्ता सागर म प्र


 आज हुए असहाय हाय हम!!
जबतक मां का हाथ था सिर पर ,तब तक वेपरवाह रहे हम,
अब इस संघर्षी जीवन के ,एक नये अध्याय बने हम, 
   आज हुए असहाय हाय हम!!
कितना प्यार दुलार दिया मां!संस्कारों का संसार दिया मां।
आफत, मुश्किल दूर हटाती,हंसते, जीते मिसाल बने हम।
   आज हुए असहाय हाय हम!!
जन्म दिया मां तूने हमको,पाला-पोसा बढ़ा किया मां।
वात्सल्य उड़ेला,ममत्वसहेजा,एकझलक मोहताज हुए हम।
  आज हुएअसहाय हाय हम!!
 पिताजी सदा व्यस्त रहते थे,सपने कुछ बुनते रहते थे,
 घर में आए कोई मुसीबत, मां के रहते छोटे सदा रहे हम।
  आज हुएअसहाय हाय हम!!
छोटा घर, छोटा-सा आंगन,सारा घर तुलसी का उपवन,
दुनिया का सब पाठ पढ़ाया, श्रेष्ठ काव्य के ग्रंथ बने हम। 
 आज हुए असहाय हाय हम!!
 


  
  3--मां के बिन
  
     डॉ सरोज गुप्ता सागर म प्र


 मां के बिन घर की देहरी छूटी ,बचपन छूटा ,
  छूटा सखियों के साथ के सुनहरा सफर।
  भाई बहिन का झगड़ा छूटा,
  छूटाअतीत की यादों का सफर ।
  
  पूरी दुनिया है साथ ,पर नहीं है मां के आशीष का आंचल।
  
मां के साथ बिताए उन पलों के छूटने की पीड़ा को कैसे करें वयां।
 मां के बिना अधूरी धरती ,अधूराआकाशऔर सारा जहां ।


पूरी दुनिया है साथ ,पर नहीं है मां के आशीष का आंचल।
  
मां के साथ बिताए उन पलों के छूटने की पीड़ा को कैसे करें वयां।
 मां के बिना अधूरी धरती ,अधूराआकाशऔर सारा जहां
           
 



         4---    मां का महाप्रयाण
              
                     डॉ सरोज गुप्ता सागर म प्र
                  
दिव्य ,भव्य शाश्वत आत्मा ने ,स्वर्गलोक महाप्रयाण किया।
अपनों से मिलने वह आयी,सबको स्मृति में झकझोर दिया।


हम जारहे हैं,कहकर,वात्सल्यमयी थपकी दे मोह छोड़ा।
आहट,घबराहट से भरकर,आत्मशक्ति ने सबसे मुंह मोड़ा।


उससमय लगा ये आत्मिकसुख,उसे आज़भी हम हैं संजोए।
क्या था, कैसा था ये, अतृप्त मिलन ,हाय! बाद में पछताये।


घबराहट का कारण, रहस्य, काश! उससमय समझ पाती।
इत्मिनान से बोलती,कुछ कहती ,कुछ सुनकर उन्हें भेजती।



 ब्रम्हवादिनियों की तरह यमराज,गणों के पीछे पीछे जाती।
 जीवन और जगत के बन्धन से मुक्त होने का उपाय पूछती
 
 आत्मशक्ति बलिष्ठ थी,श्रेष्ठशाश्वत,परमशान्ति में मगन थी ।
आत्मशक्ति अनन्त ब्रह्माण्ड में,सुखमय विलीन हो गयी थी।


यम गण सुंदर,सौम्य ,सुसज्जित स्वर्गिक,रथ लिए खड़े थे।
आत्मशक्ति को यमगणों ने वैतरणी के दिव्य दर्शन कराये। 


मलयसमीर हिमगिरि की परिक्रमा करा,भव्यलोक दिखाया। परमेश्वर में आत्मा को विलीन कर, परमानंद प्राप्त कराया।


 जग नश्वरता का रहस्य बताने, बारहवीं तक भव में छोड़ा।
पंचतत्व की नश्वर काया को,अंतिम क्रिया दर्शन करवाया।


ममता का सागर,अमृत की गागर, मां करुणा का अवतार।
मां जीवन है, संजीवन है ,मां की महिमा अपार। 
मां चंदन है,जगवंदन है, मां से ही सारा संसार।
 पुत्र-पौत्र, बन्धु-वान्धवों की ममता मिले अपरम्पार । 


 नदी की धारा मिली सागर में, सतत् प्रवहमान होने।
मिलन के मेघ मंडराये ,स्वयं ही सिन्धु में मिलने।
हृदय की रिक्तता, भव्यता ,उमड़े शतशत  सजल जलधर ।
मन नमन,प्रणम्य प्राण ,नयन भर अम्बर उपलब्ध हुआ। 
वेदना मन की ,व्यथा तन की ,पुण्य प्रबल भाग्य खुला


डॉ सरोज गुप्ता
अध्यक्ष हिन्दी विभाग
पं दीनदयाल उपाध्याय, शासकीय कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय सागर म प्र
पिनकोड-470001


काव्य रंगोली व्हाट्सएप्प रचनाये 16 मई 2020

हे मां मनीषिणी हमें ज्ञान दे
********************
हे मां मनीषिणी
हमें विचार का अभिदान दो,
मां हम योग्य पुत्र बन सकें
हमें ज्ञान दो मां।


हे मां मनीषिणी
हमें स्वाभिमान का मान दो,
चित्त में शुचिता भरो
मां बुद्धि में विवेक दो।


हे मां मनीषिणी
कर्म में सत्कर्म दो,
हृदय में दया दो मां
वाणी में मिठास दो मां।


हे मां मनीषिणी
देवी तू प्रज्ञामयी है
सभी को सुमति दो मां
मैं बार बार तुम्हें प्रणाम कर रहा हूं।।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


कविता:-
     *"पीड़ा"*
"इस जीवन में साथी फिर,
कुछ तो ऐसा कर जाये।
अपनो की ख़ुशी को यहाँ,
अपनी पीड़ा भुल जाये।।
नित ध्यान लगे प्रभु संग,
सद्कर्म करते ही जाये।
मंज़िल मिले न मिले यहाँ,
कदम ये रूक न जाये।।
एक दीप ऐसा जलाये,
जो मन का तम हर जाये।
मन छाये ऐसे विचार,
अपनत्व बढ़ता ही जाये।।
जितना जीवन धरती पर,
उसको सार्थक कर पाये।
अपनो की ख़ुशी को यहाँ,
अपनी पीड़ा भुल जाये।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः        सुनील कुमार गुप्ता
ःःःःःःःःःःःःःःःःः        16-05-2020


😌😌    दोहे राजेंद्र के    😌😌


याचक बनकर हैं खड़े,
                      दाता के  दरबार।
कोई  लाया है कनक, 
                       कोई  हीरा  हार।


लगा तनिक विचित्र हमें,
                    लोगों का व्यवहार।
जब  ख़ुद  ही  दाता बने,
                      माँगें क्यों दरबार।


मतलब  इसका तो यही,
                     पाने लाख-हजार।
रिश्वत  प्रभु  को  दे  रहे,
                      पैसे  ये  दो  चार।


               (राजेंद्र रायपुरी)


*_सरस्वती वन्दना_*


हे! गणपति गणनायक तुझे कोटि - कोटि प्रणाम।
हे! गौरी सुत सुमरिन कर तेरा शुरू करूँ हर काम।।


हे हंसवाहिनी ज्ञानदायिनी
हे आशिर्वचनों की वरदायिनी
मेरा मन प्रकाशित कर दे माँ,
तूँ व्याकुल को ऐसा वर दे माँ।
पाकर विद्या ज्योति मैं माँ तेरी,
कुबुद्धि अज्ञानता स्वाब कर मेरी।
मैं अबोध तेरी शरणों में आया,
तेरा पुजारी हूँ माँ बदलो मेरी काया।
काम, क्रोध, मोह, लोभ सब तेरी माया,
अवगुण मिटा, कर दे ज्ञान की छाया।
तूँ स्वर की देवी तुझसे गीत-संगीत माँ,
मेरे हर शब्द को परिपूर्ण कर दे माँ।
नहीं चाहिए धन धान्य यश सम्मान पाऊँ,
पाकर चरण रज माँ मैं तर तर जाऊँ।
बस यही कामना तेराभक्त कहलाऊँ,
करता रहे अभ्यास निरन्तर तेरी सेवा पाऊँ।
हे! माँ शारदे इतनी कृपा कर वर दायिनी ,
विद्या ज्योति जगाकर ज्ञान दे ज्ञान स्वामिनी।


*_रचना दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल_*


लक्ष्मीपुर महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


-
*मां का प्रतिरूप*
चल मां!! आज मैं तू और तू मैं बन जाऊं,
तेरी छबि हूं, तेरे हर गुण को पाऊं,
अपनी गोदी में तेरा सिर रखकर,
तुझे प्यार से सहलाऊं।


बिखरे से बाल तुम्हारे,
अस्त व्यस्त सी दिखती तुम,
घर को संवारती सजाती,
भूली अपना अस्तित्व तुम,


हर पल सबका संवारती हो,
कुछ पल तुम्हारे संवार दूं,
पल फ़ुरसत के देकर तुम्हें,
तुम्हारे सपनों को फिर से संवार दूं।


भविष्य हमारा संवारने में,
खो बैठी सुध बुध तुम अपनी,
चुनौतियों में बनी सहारा,
सुख चैन सब हम पर वारा,


रातों की खोई नींदों को,
फिर अपनी नींद सजा दूं,
मैं दूं थपकी तुझे,
लोरी गाकर सुला दूं।


खुद को बांध बंधनों में,
हमें दिया खुला आसमां,
हमारी चाहतों को पूरा करने,
सौंप दिया जीवन सारा,
चल मां!तेरी बिवाईयों पर मलहम लगा दूं,
तेरे शेष जीवन को प्यार से संवार दूं।
बहुत किया तुने अब तक,अब मैं तुझे आराम की छांह दूं।


मां मैं तेरी ममता बनकर
तेरा हर दुख बिसार दूं।।


ममता कानुनगो इंदौर


कृपा करो चितचोर....


माधव तेरे रूप नें,लियों सकल जग मोह।
तेरी छवि नैनन बसी,सह न पाऊं विछोह।।


मुरलीधर तेरी शरण,हरो हमारे त्राण।
सुख से बीते जिंदगी, जग पालक भगवान।।


सदा मेरे हृदय बसों,श्री राधे बृजराज।
जीवन गाड़ी हाथ में,पूर्ण करो प्रभु काज।।


जीवन ज्योति प्रखर रहे, नटवर नन्द किशोर।
किंकर"सत्य"तुम्हारा,कृपा करो चितचोर।।


श्री माधवाय नमो नमः👏👏👏👏👏💐💐💐💐💐


सत्यप्रकाश पाण्डेय


*विषय।प्रेम।।।।।।।।।।।।।।*
*शीर्षक।।।।प्रेम से परिवार*
*बनता स्वर्ग समान है।।।।।*
*दिनाँक ।  15,,05,,2020*
*(विश्व परिवार दिवस।।।।।)*


परिवार छोटी सी   दुनिया
प्यार का  इक  संसार  है।
एक अदृश्य स्नेह प्रेम का
अद्धभुत सा   आधार  है।।
है बसा प्रेम  तो  स्वर्ग  सा
घर   अपना  बन  जाता ।
कभी बन्धन रिश्तों का तो
कभी मीठी  तकरार   है।।


सुख  दुख  आँसू   मुस्कान
बाँटने का परिवार है  नाम।
मात पिता   के   आदर  से
परिवार बने है  चारों  धाम।।
आशीर्वाद,स्नेह,प्रेम ,त्याग
की डोरी से बंधे होते  सब।
प्रेम  गृह की छत  तले  तो
परिवार  है   स्वर्ग   समान।।


तेरा मेरा नहीं हम सब का
होता    है     परिवार    में।
परस्पर सदभावना बसती
है  यहाँ हर    किरदार  में।।
नफरत ईर्ष्या का कोई भी
स्थान नहीं  घर  के भीतर।
प्रभु स्वयं हीआ बसते बन
प्रेम की मूरत घर संसार में।।


*रचयिता।एस के कपूर "श्री*
*हंस",,बरेली।*
मोब            9897071046
                  8218685464


*"मातु-महान"* (दोहे)
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
^स्नेह सिक्त पीयूष को, मातु-पिला संतान।
अर्पित कर निज रक्त को, देती जीवन दान।।१।।


^पावन पय पीयूष पी, सुख सरसित संतान।
हुलसित माता अंक में, धन्य मातु-अवदान।।२।।


^उपजे पीकर क्षीर को, शिशु के मानस-मोद।
माता मन ममता महत, स्वर्गिक सुख माँ-गोद।।३।।


^मातु सकल ब्रह्मांड है, सरस-सुधा-संसार।
जीव-जगत जनु जान-जन, ममता-अपरंपार।।४।।


^अमिय-कलश है मातु-वपु, मानस ममता-मूल।
पान अमिय माँ का करे, सकल मिटे शिशु-शूल।।५।।


^होकर अति कृशगात माँ, श्रम साधित मन-क्लांत।
पान करा फिर भी अमिय, करे क्षुधा-शिशु शांत।।६।।


^मातु-सुधा-सद्भाव से, सरसे सुख-संसार।
प्रेम पले पीयूषपन, पातकपन-परिहार।।७।।


^स्नेह सजीवन सार शुचि, सरसित सुधा समान।
बोली माँ के नेह की, फूँके जग-जन-जान।।८।।


^माँ देती संतान को, ममता की सौगात।
अमिय-सरिस माँ-दूध पी, बढ़ता शिशु-नवजात।।९।।


^माता जीवन दायिनी, अमिय कराती पान।
शिशु का संबल है वही, जग में मातु-महान।।१०।।
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^^


"""""""
     👩‍🔧 *बेटी*🚶🏻‍♀
  (मनहरण घनाक्षरी)
            """""""
भारत  की  प्यारी  बेटी,
जैसे    फुलवारी   बेटी,     
सब   कुछ   वारी  बेटी,
        जग में महान है।
👩‍🔧🚶🏻‍♀
नही   कभी   डरती  है,
सब   काम   करती  है,
देश  पे   भी   मरती है,
    तू भी शक्तिमान है।
🚶🏻‍♀👩‍🔧
ममता की छाँव  तू  ही,
खुशियों की ठाँव तू ही,
समता की गाँव  तू  ही,
      घर की तू शान है।
👩‍🔧🚶🏻‍♀
फिर भी तू  चली  गयी,
हर   बार   छली   गयी,
कली भी  मसली  गयी,
       संकट में जान है।


*कुमार🙏🏼कारनिक*
(छाल, रायगढ़, छग)
💐बहन निर्भया को
श्रद्धांजलि💐🙏🏼😢
                 """""""""""


ग़ज़ल


क्या जुस्तजू करें भी यहाँ सुब्हो-शाम की
जब फिर गयीं हों नज़रें हीं माह-ऐ -तमाम की


जो कुछ था वो तो एक लुटेरा ही ले गया
जागीर रह गयी है फ़कत एक नाम की


ख़ुद आके देख ले तू जफ़ाओं का अब सिला
*शोहरत है आज शहर में किसके कलाम की*


खोली जो उस निगाह ने मिलकर किताबे-इश्क़
उभरीं हरेक हरफ़ से मौजें पयाम की


महफ़िल में दो घड़ी हुई क्या उनसे गुफ़्तगू
हैरान दिख रही है नज़र खासोआम की


ज़ुल्फ़ों का अपनी नूर अंधेरों को बख़्श दे
बेनूर लग रही है ये तस्वीर शाम की


*साग़र* फ़ज़ाएं आज हैं क्योंकर धुआँ-धुआँ
शायद लगी है आग कहीं इंतकाम की


🖋विनय साग़र जायसवाल


*अनुशासन*
16.5.2020


मन जरा संभालिए
अनुशासन राखिए
जीवन सरल रहे
मन में विचारिये।


हिलमिल रहें सब
धरा स्वर्ग रहे बन
सभ्यता को सँग रखे
प्रयत्न ये धारिये ।


है संस्कृति ये महान
करना सब सम्मान
विरासत ये अपनी
इसको संभालिये।


देश वीरों का महान
भारतीय पहचान
सिर रखे गर्व तान
स्वाभिमान राखिये ।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"


स्वतंत्र रचना क्र. सं. ३१२
दिनांकः १६.०५.२०२०
दिवसः शनिवार
छन्दः मात्रिक
विधाः दोहा
विषयः आत्म निर्भरता
शीर्षकः आत्मनिर्भर हम बने


अपने   को   अपना    कहें , स्वीकारें  भी    अन्य।
अच्छाई   जिसमें     दिखे,  बनाये     उसे  अनन्य।।१।।


आत्म  निर्भर   हम   बने , चलें    देश  के     साथ।
उत्पादक   जो    देश   का , स्वीकारें    बढ़   हाथ।।२।।


कर्मवीर    मजदूर    हम  , आत्म   निर्भर  समाज।
रनिवासर   मिहनतकसी , स्वागत   नव   आगाज।।३।।


स्वाभिमान   रक्षण    स्वयं , बढ़े   सुयश  सम्मान।
हर्षित   मन  जीवन  मनुज , निर्भर   खु़द इन्सान।।४।।


सक्षम    हम    सर्वांग   से , कर   सकते   उद्योग।
रखें  अन्य   से   आश  क्यों , करें स्वयं  सहयोग।।५।।


मिलती ख़ुद मिहनत खुशी,खिलती मुख मुस्कान।
नयी   सोच   नव   जोश  से, पूर्ण   करें  अरमान।।६।।


संसाधन  हैं   जो   सुलभ ,  करो  नया   आगाज।
मिले  राह  नव प्रगति का , नव भविष्य  आवाज।।७।।


दीन हीन  हम  क्यों बने,जब  सक्षम   सब  काम। 
साधें हम  निज लक्ष्य को , जीवन   हो  सुखधाम।।८।।


धीर       वीर   गंभीरता , संकल्पित   अभिलास।
बड़ी शक्ति  है  आत्म बल , रखो  स्वयं  विश्वास।।९।।


सभी  समुन्नत  हो   स्वयं ,  बने    समुन्नत   देश।
बढ़े   मान  यश   सम्पदा ,   स्वावलंब      संदेश।।१०।।


पर  निर्भरता    मरण  है , नित  जीवन अपमान। 
करती   पौरुषता   हनन , हरे    वतन    सम्मान।।११।।


अपनापन  आभास  मन , निर्माणक  खु़द  ध्येय।
है निकुंज  जीवन  कथा ,  स्वावलम्ब   बस  गेय।।१२।। 


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली


कवि✍️डॉ.निकुंज


मेरी माँ शारदे वरदायिनी स्वेता मुझे वर दो
बहुत ही पापनी हूँ हंश की देवी देवी दया करदो
भटकती हूँ मैं सदियो से तुम्हारा ही सहारा है
करो थोड़ी दयादृष्टि अकिंचन को भी मां स्वर दो
    
     वंदना पाल


🌹परिवार 🌹
जहां सब एक-दूसरे का आदर सत्कार करते हैं ।
बड़ों- छोटों को समान सम्मान देते है ।
उसे परिवार कहते हैं ।
चेहरा देख कर ही समझ जाते हैं
सुख-दुख के भाव पढ लेते हैं
जहां अपनापन होता है
आत्मा से आत्मा का संबंध होता है
उसे परिवार कहते हैं
बिना कहे ही समस्याएं हल हो जाती हैं ।
कितनी ही बलाये टल जाती है
जहां मन में कभी नहीं मिलता राग द्वेष को स्थान ।
उसे परिवार कहते हैं ।
काव्य रंगोलीभी हमारा बहुत बढ़िया परिवार है ।
जहां वसुदेव कुटुंबकम की भावना का विस्तार है ।
इसे पाकर हम धन्य है ।
जहां एक दूसरे की भावनाओं का होता आदर है ।
हमारे अंदर आत्मीयता इतनी प्रबल है ।
हम जिस मंच से जुड़ते हैं उसे अपना परिवार समझते हैं । बड़ी ईमानदारी से निभाते हैं सारे रिश्ते ।
इसीलिए भारतवासी सबसे अच्छे अच्छे कहलाते ।


जय श्री तिवारी खंडवा


9920796787****रवि रश्मि 'अनुभूति '


   🙏🙏


  अमीर छंद
**************
विधान ~
प्रति चरण 11 मात्राएँ , चरणांत जगण  (  121 ) , दो- दो चरण समतुकांत ।


विपदा खूब अपार ।
कर बेड़ा अब पार ।।
      करना है अब योग ।
      रहेंगे हम निरोग ।।
सादा हो अब भोज ।
पास आये न रोग ।।
       मुट्ठी बंद  उजास ।
       हो दीर्घायु आस ।।
आये जीवन रास ।
रहे रोज़ उल्लास ।।
          है जीवन वरदान ।
           बनता आज महान ।।
मैं तो हूँ अब दास ।
रखो ही चरण पास ।।
             प्रभु मेरी रख आन ।
             बढ़े सदा अब शान ।।
%%%%%%%%%%%%%%%%%


(C) रवि रश्मि 'अनुभूति '


दोहा
-------


बच्चे सब हैरान  है, मातु- पिता के संग।
चलते रहते दूर से ,उड़ता मुख का रंग।।


कोरोना से लड़ रहा, विश्व बड़ा ही जंग।
खूनी  इस उत्पात को, देख सभी हैं दंग।।

हम घर में अब बंद हैं ,रहे नियम के संग ।
आशा दीप जला रखें,  जीतेंगे हम जंग।।


कैसी विपदा की घड़ी ,ट्रक में चढ़ते लोग।
जिसको जैसा बन पड़ा, न्योता देते रोग ।।


होड़ लगी पहले चढ़े, छूटे मत मजदूर ।
कोई भी साधन नहीं, जोखिम को मजबूर।।


अर्चना पाठक  निरंतर
अम्बिकापुर


*किसानों के हालात*
विधा: गीत


जो दुनियाँ को खिलता है,
वो खुद भूखा रहता है।
बड़े मंचो से इन की,
मिसाले दुनियां को देते है।
परन्तु इन किसानों की,
कोई भी सूद नही लेते।
तभी तो ऋणमें पैदा होता है,
और ऋणमें ही मर जाता है।।


दुखो में जीने वाले,
गमो में डूबे रहते है।
दुखो को ही अपना,
नसीब वो समझते है।
दुखो के चलते हुए भी
निभाते अपना कर्तव्य वो।
और हर मौसम के त्यौहार,
बड़ी खुशी से मानते है।।


यदि मिल जाये दुखो से,
कभी छुटकारा उसे अगर।
तो भी वो अपने जिंदगी को,
बड़े ही शांत भाव से जीते है।
और खुशी और दुख की लहर,
नही आने देते चेहरे पर।
सदा ही समान भाव से,
वो जीते अपना जीवन।।


हजारों सालों से इनकी,
यही हालत बनी हुई है।
होकर आजाद भी हमने,
नही सुधारे इनकी हालात।
पहले भी शोषण इनका, जमीदार आदि करते थे।
और आज भी शोषण इनका,
देश की सरकारें कर रही है।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
16/05/2020


ये मुहब्बत जो जमाने से छिपा ली मैंने।
तो जिगर और जुबाँ फिर तो संभाली मैंने।
****
जिन्दगी भर के लिए सिर्फ नहीं मरने तक।
ताजगी गुल ए दरीचाँ से .....निकाली मैंने।
****
ये ख़यालों में सदा सोच भरी रहती है।
मुश्किलों में तो नहीं जान फसाली मैंने।
****
रात दिन ख़ाक हुए आज तलक मेरे हैं।
प्यार की एक कली भी तो बचाली मैंने।
****
उम्र भर सिर्फ तेरा ही मैं रहूंगा बनकर।
ये कसम आज दिले जान उठाली मैंने।
****
सुनीता असीम
16/5/2020


"लॉक डाउन"
लॉक में रहते हुए अब हो चुकी उम्मीद डाउन,
कब खुला आकाश देखूँ,हो रही है दीद डाउन ।।


अब तो जूगनू पास आने से मेरे डरने लगे हैं,
जल रही आंखे हमारी लग रही है नींद डाउन ।।


छप्पनो पकवान बनते, घर अतिथियों से भरे थे,
आज उस चूल्हे की देखो, हो गयी है आँच डाउन ।।


जो हुलस करके लगाते थे, गले अनजान को भी,
काटकर कन्नी गुज़रते ,हो गए जज़्बात डाउन ।।


मौत बनकरके उड़नछू , जान की प्यासी हुई है,
आहटों से भी लगे डर ,हो रही है सांस डाउन ।।


गीता सिंह "शम्भुसुता"
प्रयागराज


सभी को मेरा सादर नमस्कार एवं सभी को उनकी रचनाओं के लिए हार्दिक बधाई🙏🙏💐💐💐💐


*चिंता*
--------
मन में डेरा डाल कर चिंता ने फिर आ घेरा है
अपने साथ लाई है बेचैनी, दुख, परेशानी
विदा तो मैं उसे कर आई थी
अपने साथ खुशियों को ले आई थी और मुस्काई थी
पर चिंता हठी बालिका की तरह आकर बोली
क्यों खुशी के संग ही खुश रहती हो
खुशी तो पल भर ही रहती है
हरदम तो मैं ही सभी के संग रहती हूँ
हाँ, कुछ दिनों के लिए चली जरूर जाती हूँ
फिर नई सौगातें लेकर चली आती हूँ
मन से दिमाग तक फैला तो मेरा घर है
इस घर से कैसे बेघर हो जाऊँ?
मेरा कहा मानो तो मेरे साथ ही
जीवन जीना सीख लो
चिंता को चिंतन कर दो
चिंतन को अच्छे कर्मों से
जीवन को आनंद से भर दो ।


*आभा दवे*


•खुशियों का समन्दर•
अपने खुशियों का समन्दर तेरे हवाले कर दूँ।
सारे दुखों को आज से मौत के हवाले कर दूँ।
हार-जीत सुख-दुख ज़िन्दगी में आते जाते हैं
पर मैं खुद की ज़िन्दगी को तेरे हवाले कर दूँ।
-कबीर ऋषि "सिद्धार्थी"
सम्पर्क सूत्र-9415911010
KRS


#मुक्तक


बताओ जमाने से क्या पा रहें हैं,
मिलावट मिला आज हम खा रहें है,
जरा फायदे के लिए आदमी भी
मुनाफ़ा बहुत सा लिए जा रहें हैं !!


-


** आलोक मित्तल **




बलराम सिंह यादव धर्म एवम अध्यात्म शिक्षक

भक्तवत्सल भगवान


राम भगत हित नर तनु धारी।
सहि संकट किये साधु सुखारी।।
नामु सप्रेम जपत अनयासा।
भगत होहिं मुद मंगल बासा।।
 ।श्रीरामचरितमानस।
  प्रभुश्री रामचन्द्रजी ने अपने भक्तों के हित के लिए मनुष्य शरीर धारण करके स्वयं कष्ट सहकर साधुओं को सुखी किया,परन्तु भक्तगण प्रेम के साथ नाम का जप करते हुए सहज ही में आनन्द और कल्याण के घर हो जाते हैं।
।।जय सियाराम जय जय सियाराम।।
  भावार्थः---
  भगत हित मनुष्य शरीर धारण करने का तात्पर्य यह है कि स्वयं भगवान को भूलोक पर मनुष्य शरीर में अनेक कष्ट उठाने पड़े।इसके पीछे मुख्य उद्देश्य अपने भक्तों को सुखी करना ही था।यथा,,,
सो केवल भगतन हित लागी।
धरेउ सरीर भगत अनुरागी।।
भगत हेतु भगवान प्रभु राम धरेउ तनु भूप।
किये चरित पावन परम प्राकृत नर अनुरूप।।
  माता सतीजी को भगवान शिवजी ने उनके भ्रमित होने पर यही बात समझाने का प्रयास किया था।यथा,,,
सोइ राम ब्यापक ब्रह्म भुवन निकायपति मायाधनी।
अवतरेउ अपने भगत हित निजतन्त्र नित रघुकुलमनी।।
  परमपिता परमात्मा का हर शरीर धारण करना कष्टदायक ही है क्योंकि मनुष्य शरीर में उन्हें सांसारिक क्रियाओं यथा जन्म व मृत्यु से भी जूझना पड़ता है।और जन्म और मृत्यु अत्यन्त कष्टदायक कहे जाते हैं।यथा,,
जनमत मरत दुसह दुख होई।
 पुनः
 अजित बसन फल असन महि सयन डासि कुस पात।
बसि तरु तर नित सहत हिम आतप बरसा बात।।
 कहने का भाव यह है कि प्रभुश्री रामजी ने नर शरीर में अवतार लेकर वनगमन और दुष्टों का सँहार में अनेक कष्ट झेले और तब अपने भक्तों को सुखी कर पाये।इसके विपरीत रामनाम बिना परिश्रम के केवल सप्रेम नाम उच्चारण करने से ही भक्तों को सभी प्रकार के सुख प्रदान कर देता है और मरणोपरांत भक्तों को परमगति अर्थात मोक्ष भी प्राप्त करा देता है।
।।जय राधा माधव जय कुञ्जबिहारी।।
।।जय गोपीजनबल्लभ जय गिरिवरधारी।।


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार 16 मई 2020


डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी 
पत्नी इं0 अमर नाथ त्रिपाठी
जन्मदिन - 11/07/1957
जन्म स्थान,  जिला जौनपुर उ0प्र0
शैक्षणिक योग्यता 
संस्कृत साहित्याचार्य, पीएच ़डी.
 पी.जी. डिप्लोमा पत्रकारिता एवं जनसंचार 
 19/303 इन्दिरा नगर लखनऊ उ0प्र0 226016  
  मोबाइल -   8787009925 , 9415301217
 tripathi.lata@rediffmail.com 
 लेखन विधा – छंदबद्ध काव्य लेखन 
प्रकाशित पुस्तकें – 1 कृति ‘’वर्णिका’’ काव्य संग्रह  2- ‘’मौन मन के द्वार पर (छंदाधारित गीतिका संग्रह)


साहित्यिक उपलब्धियाँ - पुरस्कार एवं सम्मान 
 
 सम्मान - कवितालोक रत्न सम्मान, गीतिका गंगोत्री सम्मान, सारस्वत सम्मान काव्य भारती, ‘”छंद शिल्पी” सम्मान, ”कवितालोक भारती” सम्मान, साहित्य सुधाकर सम्मान (राजस्थान), सारस्वत सम्मान  कवितालोक (1जुलाई 2018), कवितालोक आदित्य -2019 (4 मार्च 2019),  युग्मन गौरव सम्मान, नारी सागर सम्मान द्वारा - विश्व हिंदी रचनाकार मंच दिल्ली  
मुक्तक-लोक लखनऊ उ.प्र. -  गीतिका श्री सम्मान, छंद श्री सम्मान, मुक्तक-लोक  गीत रत्न सम्मान, युगधारा फाउंडेशन द्वारा  साहित्य भूषण सम्मान व समाज भूषण सम्मान 2019
पत्रिका - काव्य रंगोली, (लखीमपुर खीरी) , नारी तू कल्याणी (कानपुर) , शुभ रश्मि (लखनऊ), साया (भोपाल) में  सहभागिता । युगधारा साहित्यिक पत्रिका एवं 'सवेरा' साहित्यिक पत्रिका लखनऊ उ0प्र0 
परिचय --- डॉ. प्रेमलता त्रिपाठी - पत्नी इं0ए0एन0त्रिपाठी(से0निव0-(उ.प्र.पा.कारपो.लि.)  पिता  स्व0भास्करानंद मिश्र प्रवक्ता( हिंदी )तिलकधारी सिंह कालेज जौनपुर । 
 नाटिका प्रियदर्शिका सम्राट हर्षदेव द्वारा  रचित कृति पर शोध ‘‘प्रियदर्शिका एक समालोचनात्मक अनुशीलन’’ पुर्वांचल विश्वविद्यालय एवं सम्पूर्णानंद विश्वविद्यालय से  संस्कृत साहित्याचार्य की उपाधि प्राप्त किया।


अधोलिखित रचनाएँ ---- 1से 5


          -- 1 --
छंद -मदिरा सवैया (7भगण+2)      
----------------------------
दौलत के मद भूल गये अपनीति बढी़ अब नीति कहाँ ।
भूल गये पद मान गुमान कुरीति बढी़ अथ रीति कहाँ ।
व्याधि कटे भव संकट घातक प्राण दशा दयनीय जहाँ ।
जीवन साध्य अमूल्य सुधारस मानवता महनीय  जहाँ ।
----------------------------
घेर रही  बदरी नभ  प्रीतम ज्यों  अँचरा फहराय चली ।  
मोहति ये कजरी मलयानिल से गजरा महकाय चली ।
श्याम अश्वेत खुले घन केश बयार सखी लहराय रही ।
कूज रहे खग झुंड यथा मन को घन पंख लगाय रही ।
-------------------------
कूज रही वन कुंजन कोकिल शाखन को हुलसाय सखे ।    
  बाग रसालय से  महके  जब   बौरन  से  उमगाय सखे । 
झूम बयार गिरे अमिया बगिया मन को उरझाय  रही ।
नेह भरे सुधि  प्रीतम की पग ते ठुमरी ठुमकाय रही । 
                                         डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
                2
छंद --- लावणी (भजन )
तुम्हें पुकारूँ यशुदा नंदन,दीनों  के हे नाथ सुनो ।
राधा रानी सखी सयानी,आओ लेकर  साथ सुनो ।
यमुना तट हो बंशी बट हो,धेनु सखा के रखवाले, 
भूल गये जो चक्र सुदर्शन,आज उठालो हाथ सुनो ।


विरद बचा लो हे यदुनंदन, त्राहि  मची  उसे  निवारो ।
हे मधुसूदन प्रगट करो निज,शक्ति सकल मान विचारो ।
निस्तेज करो सकल आपदा,वंदन तेरा  करुणामय  ,
युद्धभूमि के योद्धा हम सब, राह  तके सदा तिहारो ।
 तुम्हें पुकारूँ यशुदा नंदन,दीनों  के हे नाथ सुनो । ------                               डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
            -  3 -
आधार छंद विधाता (मापनीयुक्त मात्रिक)
मापनी- 1222,1222,1222,1222
लगागागा, लगागागा, लगागागा,रगागागा।
समांत 'अल' अपदांत
गीतिका -----


दुखी है लेखनी अपनी,कहाँ खोया हमारा कल ।
किया शृंगार कब तुमने,न यादों में उभरता पल ।


मिटा हस्ती रहा अपनी,कि दुर्दिन घातकी बनकर,  
नजर किसकी लगी हमको,न जानें कौन सा ये छल ।


उठाती टीस है जैसे,दरों दीवार ये आँगन,
खिले गुलदान ये हँसते,बढा़ते जो सदा संबल ।


चहकते प्रात किरणों से,झरोखे खोल कर देखो,
मिटेगी वेदना निश्चित,हवायें कह रही चंचल ।


महकते  बौर  घन झूमें, रसालय हो रहा तन्मय,
मुसाफिर क्यों न ठहरेगा,मदिर वाणी सुने कोयल ।


धरा ये  रत्न  गर्भा है, बडी़  मुग्धा  पुनीता है, 
मुकुट मण्डित हिमालय से,जलधि से है तरल आँचल ।


मृदुल मन प्रेम रस घोलो, उठे उद्गार मत रोको,
बहाने ढूँढती खुशियाँ,तनिक तुम खोल दो साँकल ।
               डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
           ---- 4----
छंद-चामर (21,21,21,21,21,21,21,2)
समान्त: अगा<>पदान्त: सखे
गीतिका
                                                     
हार मानना न  मौत  को  गले  लगा सखे  ।
भाग्य वान हो अहो सुभोर को जगा सखे ।


है अतीव वेदना  विराग क्षोभ मानिए ,   
दे रहा अकाल ज्यों कराल ये दगा सखे ।


दौर आ गया समक्ष साहसी बने स्वयं,   
भेद भाव आपसी दुराव को भगा सखे ।   


दूरियाँ भले रहें न बाँटिए समाज को,
एक देश एक राष्ट्र गीत मंत्र गा सखे ।


एकता बनी रहे पुनीत राष्ट्र भावना,
भाव दीप्त यों रहे भले न हो सगा सखे ।


द्वंद्व तो अनेक हैं मिटा सके न नेह को
भूल ये सभी गिले खुशी सभी मँगा सखे ।


प्रेम की प्रगाढ़ता सहे अनंत पीर को,
अर्घ नित्य हो नवीन सूर्य तो उगा सखे ।
                 डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी
--------5--------
गीत -----
जागती रातें  कहीं  हमको लुभाती है ।
पीर अंतस की न उनको भूल पाती है ।


शब्द बनकर गीत अधरों पर सदा रहते ।
छंद उनके भाव भंगिम के कहा करते ।
दूर पनघट है गुहारे यों थिरकता मन,
श्याम तेरी बंसरी हर पल बुलाती है ।


धीर मन का खो रहा चंचल हुआ जाता ।
फागुनी चादर उढा़ अंचल हुआ जाता ।
साँवरे के  रंग में सुध-बुध भुलाये जो,
डूब जाने दो मुझे वह प्रीत भाती है   ।


घन सरोवर में खिलेगें वे कमल आनन ।
फाग उड़ते गुनगुनाते जब भ्रमर आँगन ।
युग पुरुष जैसे बना जग का चितेरा तू,
प्रेम वह अनुराग सलिला नित बहाती है।
----------------------डॉ.प्रेमलता त्रिपाठी


 


काव्यरंगोली व्हाट्सएप्प समूह 15 मई 2020 चयनित रचनाये


सुप्रभात:-
जो कर सकता है  समस्याओं  से  सामना।
वो कर सकता है सफलताओं की कामना।


-----------देवानंद साहा"आनंद अमरपुरी


*गुरु चरणों में प्रेम हो जाये*
********************
जीवन की धारा मुड़े
पाकर  सद् गुरु संग,
कलुषित मन निर्मल बने
पुलकित हो हर अंग।


मन सम कोई मीत नहीं
और न मन सम कोई वैरी,
अगर गुरु की कृपा हो जाए
ये जीवन  हीरा सा हो जाए।


गुरु सेवा सम पुण्य नहीं
पर पीड़ा का बोध कराए,
भले बुरे का बोध कराते
गुरु चरणों में प्रेम हो जाये।


गुरु सत् चित् आनन्द है
नेक राह   बताते  है,
गुरु का आशीष मिला है तो
न हो सकता कोई बाल बांका।।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


😌 हालात तो यही कहते हैं 😌


जीना सीखें हम सभी,
                     'कोरोना' के साथ।
मगर याद ये भी रहे,
                     नहीं मिलाएॅ॑ हाथ।
नहीं मिलाएॅ॑ हाथ,
              दैत्य ये जब तक रहता।
बचने का तो तौर,
              यही  है  हमसे  कहता।
चलो सभी निज़ काम,
                तानकर अपना सीना।
बिना किए कुछ काम,
               नहीं  है  संभव  जीना।


           ।। राजेंद्र रायपुरी।।


कविता:-
     *"इम्तिहान बाकी है"*
"गुज़र गया तूफान साथी,
जीवन का अभी-
इम्तिहान बाकी है।
बीत गया मधुमास साथी,
अभी तो उसका-
अहसास मन में बाकी है।
कैसा-भी हो जीवन -पथ साथी,
अपनत्व का अहसास अभी-
इस जीवन में बाकी है।
कौन-अपना-बेगान जग में,
जान न पाया मन-
संग चला जो साथी यही अहसास बाकी है।
भटके जो कदम राह से साथी,
मंज़िल का पता लगाना-
जीवन में अभी बाकी है।
गुज़र गया तूफान साथी,
जीवन का अभी-
इम्तिहान बाकी है।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः         सुनील कुमार गुप्ता
sunilguptaःःःःःःःःःःःःःःःः्           15-05-2020


रक्षक बनकर आओ.......


सारा विश्व बाट जोह रहा
कोई तो ऐसा मिले उपाय
प्राणी मात्र हुआ बंधन में
कोई तो आके करे सहाय


कोई टीका बने जगत में
कोरोना से मिल जाये मुक्ति
पट बंद किये बैठे ईश्वर
घायल हुई आज यहां भक्ति


कामधाम भूल गया मानव
बना रहा सामाजिक दूरी
पास न आय मानव मानव के
देखो कैसी यह मजबूरी


कोई किसी से बात करे न
नहीं कोई दुख सुख की चिंता
आमदनी का गणित बिगड़ गया
जीवन की कैसी अनियमितता


परम ब्रह्म बस आश्रय तेरा
जीवन ज्योति जलाओ निरन्तर
सकल विश्व शरणागत तेरा
रक्षक बनकर आओ गिरिधर।


श्री जगन्नाथाय नमो नमः👏👏👏👏🌹🌹🌹🌹


सत्यप्रकाश पाण्डेय


इंसान अँधा ,बहरा ,गुगा हो गया सच सुनने ,देखने ,बोलने से बचने लगा है।                              


गांधी जी के तीन बन्दर को इंसान तिलांजलि दे गया है ।।         


इंसान आँख खोलता है मतलब मौको पर खुद के लिये ,।    


जबान खोलता हैं नाज़ और गुरुर में ,भूखे भेड़िये बाज़ कि तरह शिकार के लिये।।


कान खोलता है बुराई सुनने के लिये ।।                          


महात्मा कि आत्मा हर शहर ,गली चौराहों पर बूत बनी देखती है।


इंसान के बदलते ईमान का तमाशा।।                         


कोफ़्त से धिक्कारती है खुद को सत्य के आग्रह, सत्य अहिंशा का मार्ग क्यों खुद का सिद्धान्त क्यों बनाया ।                          


जमाने को क्यों सत्य अहिंषा का मार्ग दिखलाया  जीवन मूल्यों में नैतिकता का पाठ क्यों पढ़ाया।।                    


आजका नौजवान जहाँ के भरोसे का भाग्य कुछ ज्यादा ही है अक्लमन्द ,समझदार ,होसियार।


पैदा होते ही देने लगता है  माँ बाप दुनियां को शिक्षा।।                  


राम और कृष्णा उसे आम इंसान लगने लगते खुद में उसको भगवान दिखने लगते ।         


गांधी जी के तीन बन्दर अन्धे बहरे बेजुबान लगने लगते ।।   


गंगा, अँधा, बहरा होते हुये भी जहाँ में खुद को समझदार लगाने लगते ।                        


इंसानियत का इल्म ईमान से वास्ता नहीं ।                         


खुद को ही सत्य का  साक्षात्कार कहने लगते।।                    


हिंसा हद तक करते अहिंशा के अलमदार बनने लगते।     


शहर ,नगर की गलियां नहीं सुरक्षित दुनियां में जमाने के खारख्वाः लगने लगते ।।      


माँ बाप को बताते जनरेसन का के अंतर में संस्कृति संकार बदल जाते ।               


 
धर्म और ज्ञान कि मर्म मर्यादा को बैकवर्ड ऑर्थोडॉक्स बताते।।  


माँ बाप  महात्मा ,ऋषियों, मुनियों कि शिक्षा ,दीक्षा की त्याग त्याग तपस्या का धर्म शास्त्र बताते ।


देश कि माटी के गौरव गाथा के इतिहास का वर्तमान बताते ।।


आज का नौजवान कल देश की भविष्य का अभिमान कल का इंसान का ईमान ।             


बहरा बन जाता जैसे कि उसे देश समाज कि विरासत से नहीं कोई वास्ता।।                          


हसरत पीढ़ियों कि नए जहाँ का नए उत्साह में जोश  का नौजवान सत्य के अर्थ कि दुनियां नई बनाये ।              


आँखों के रहते अँधा हो गया है आज इंसान  नए समाज का नौजवान  ।।                         


देखता नहीं, देखना चाहता ही नहीं ,जिंदगी और जिंदगी के रास्तो में बेगाना सा बन जाता अनजान।                            


जैसे कि उसे कोई लेना देना ही ना हो अन्धे क़ानून का मांगत है न्याय ।।                           


कितने अत्याचार अन्याय हो जुबान खोलता ही नहीं ।      


जुबान खोलता है जब हलक सुख जाती अटक जाती जुबान।।  


गांधी जी के तीन बन्दर बुराइयों को देखते सुनते  नहीं बुरा बोलते नहीं ।


आज के जमाने का नौजवान इंसान सच्चाई देखता नहीं सच्चाई  सुनता नहीं सच बोलने कि हिम्मत रखता नहीं ।।        


आज का इंसान नौजवान बन्दर सा हो गया है अपने स्वार्थ में अँधा बहरा गंगा  हो गया है।          


कभी इधर कूदता ,कभी उधर कूदता ,कभी स्वार्थ के इस डाल पर ,कभी उस दाल पर।।


पर कभी खुद का खून पिता कभी कभी दुनीयाँ समाज का बहसि दरिंदा सा खुद भी परेशान दुनियां को करता परेशान।।                      


महात्मा कि आत्मा होती शर्मशार कहती मैंने तो बंदरों को भी ईमान से जीना सिखसलया उन्हें भगवान राम के दौर का हनुमान बनाया ।


आज तो इंसान बन्दर से भी बदतर हो गया है मान मर्यादा का कर रहा नित्य हैं नित्य हनन निर्लज्ज हो गया है।।


अँधा,गुगा ,बहरा हो गया है अपनी बेमतलब कि जिंदगी को अपने काँधे पर अर्थी कि तरह अर्थ हिन्  बे मतलब ढोरहा है।।            


नन्द लाल मणि त्रिपाठी पितसम्बर


शेर-
मस्ती सी छा रही है फ़िज़ा में शराब की
ख़शबू बिखर गयी है रुख-ऐ-लाजवाब की


🖋विनय साग़र जायसवाल


*"पर्दा"* (वर्गीकृत दोहे)
.............................................
*पर्दा जब रहता घिरा, लगे नहीं अनुमान।
जाने कब किस कर्म को, करता है इंसान।।१।।
(१५गुरु, १८लघुवर्ण, नर दोहा)


*परदे की ही आड़ में, रहकर हैं कुछ लोग।
करते अनुचित कर्म से, जीवन का है भोग।।२।।
(१४गुरु, २०लघुवर्ण, हंस/मराल दोहा)


*बेपर्दा जो जन करे, प्रीत प्रगट पहचान।
पावन पर्दा कामना, सज्जन मान विधान।।३।।
(१५गुरु, १८लघुवर्ण, नर दोहा)


*आडंबर को ओढ़कर, करना नहीं अनर्थ।
पोल खुलेगी जब कभी, मान घटेगा व्यर्थ।।४।।
(१५गुरु, १८लघुवर्ण, नर दोहा)


*पश्चिम की है सभ्यता, बेपर्दा पहचान।
पर्दाहीन कभी न हो, बचा रहे सम्मान।।५।।
(१८गुरु, १२लघुवर्ण, मण्डूक दोहा)


*अनुचित करना तुम नहीं, लेकर पर्दा आड़।
पूरे होते काम को, देना नहीं बिगाड़।।६।।
(१६गुरु, १६लघुवर्ण, करभ दोहा)


*ढँक मत अपने दोष को, उस पर पर्दा डाल।
हटता ही है आवरण, नहीं बचेगी चाल।।७।।
(१४गुरु, २०लघुवर्ण, हंस/मराल दोहा)


*पर्दे में है भूमि के, छिपे बहुत से राज।
मानव-प्रतिभा कर रही, बेपर्दा है आज।।८।।
(१७गुरु, १४लघुवर्ण, मर्कट दोहा)


*जंगल धरती में रहें, ये हैं पर्दा जान।
वृक्षों का तो काटना, खतरे का है भान।।९।।
(१९गुरु, १०लघुवर्ण, श्येन दोहा)


*तन पर पर्दा डालकर, मन बेपर्दा होय।
"नायक" कलुषित कर्म कर, काहे अपयश ढोय??१०??
(१२गुरु, २४लघुवर्ण, पयोधर दोहा)
................................................
भरत नायक "बाबूजी"
लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)
................................


******
🌞सुबह🙏🏼सबेरे🌞
     ^^^^^^^^^^^^^
          *मँहगाई*
   (मनहरण घनाक्षरी)
            """""'"""''''
मार      रही     मँहगाई,
आती   सबको    रुलाई,
मौज     करे     हरजाई,
           सब घबराये हैं।
0
अन्न   दूध   जल   कहाँ,
सुखदाई     पल    कहाँ,
जाने क्या हो कल कहाँ,
          सिर चकराये हैं।
0
सुनती     न      सरकार,
मुकरी     है    हर   बार,
फिर  भी   है   जयकार,
         नेता मुसकाये हैं।
0
पेट   भी  ये   कैसे  भरे,
सोच    कर   मन    डरे,
दिल   धक - धक   करे,
       कैसे दिन आये हैं।


*कुमार🙏🏼कारनिक*


*न रुकना न टूटना न थमना और*
*न ही बिखरना है।हमें अब*
*आत्म निर्भर बनना है।*


न रुकना न  बिखरना न झुकना
और न ही   थमना है।
बढ़ कर आगे    हमें  स्वदेशी  से
आत्मनिर्भर बनना है।।
कॅरोना के चक्रव्यूह को तोडकर
करनी    है   प्रगति ।
इस महामारी   के   मध्य  प्रगति
के काम में लगना है।।


मेड इन इंडिया   को    विश्व   में
अब ब्रांड  बनाना  है।
भारत की गौरव  गाथा  को  पूरी
दुनिया को सुनाना है।।
लोकल को वोकल   करके   हमें
फिर बनाना है ग्लोबल।
हर भारतीय  को  अब    सामान
स्वदेशी   अपनाना   है।।


अब आश्रित भारत   की  तस्वीर
को     बदलना     है।
हम नहीं कर सकते  इस तकरीर
को     बदलना     है।।
स्वदेशी अभियान को    हमें    है
बनाना इक आंदोलन।
भारतीय कलाकौशल के बल पर
तकदीर को बदलना है।।


*रचयिता।एस के कपूर " श्री हंस"*
*बरेली।*
मो     9897071046
         8218685464


🌅🙏सुप्रभातम् 🙏🌅


दिनांकः १५.०५.२०२०
दिवसः शुक्रवार
विधाः दोहा
छन्दः मात्रिक
शीर्षकः नवनीत माला
चले  गेह    नित  मातु  से,  पिता   चले   परिवार।
गुरु    गौरव   समाज   का , चले   देश   सरकार।।१।।


कारण  सब   हैं    नव सृजन , चाहे   देश समाज।
निर्माणक   परिवार का , कुप्त   प्रलय    आगाज।।२।।


प्रतिमानक      संघर्ष   के ,  आवाहक     युगधर्म।
मातु पिता    अरु गुरु भूपति, सम्वाहक   सत्कर्म।।३।।


सदाचार   मानक     सदा ,   मानवीय     संस्कार।
उषा काल    जीवन   प्रभा, आलोकित    संसार ।।४।।


जीवन   हो   साफल्य तब,  तजे  स्वार्थ   परमार्थ।
खुशियाँ मुख मुस्कान बन,समझो सुख जन सार्थ।।५।।


जन सेवा  प्रभु प्रीत   है , राष्ट्र  भक्ति  प्रभु ध्यान।
सत्य सहज पथ मुक्ति का, अमर सुयश  वरदान।।६।।


नित  निकुंज  कवि  काकली,मातु पिता गुरु गान।
राज  काज  रत भोर से ,  राष्ट्र भक्ति  मन   ध्यान।।७।।


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक( स्वरचित)
नयी दिल्ली


पीड़ा
15.5.2020


हैरान हूँ जिंदगी
तेरी बेरुखी से
अभी तक खेलती रही
मुस्कुराती रही न जाने कैसे कैसे
लुभाती रही नित नए लुभावन से ।
ऐसा हुआ क्या तुझे अकस्मात
आँख तूने चुराई न जाने किन हालात
बेवफ़ा हो गई तू
क्यों अचानक से ?
मैं पकड़ भी ना पाई तुझे
देखती रही हाथो से फिसलते
फिसलती है रेत जैसे
धीरे धीरे बंद मुठी से ।
मृत्यु शाश्वत होती है
जो सँग चली आती है जन्म के
फिर भी बन अनजान
भागते रहते हम जिंदगी के लिए
और एक दिन बन बेवफ़ा
छोड़ जाती हो तुम
अचानक से यूँ हीं ।
तुझे सजाने में मैंने ख़ुद को गला दिया
बेवफ़ा तूने मुझे क्या सिला दिया
एक अंनत पीड़ा और भावनाओं का सैलाब बस।


स्वरचित
निशा"अतुल्य"


*मूल बात*
विधा : गीत


किसीको क्या दोष दे हम,
जब अपना सिक्का ही खोटा।
दिलासा बहुत देते है,
स्वार्थी इंसान दुनियां के।
समझ पाता नहीं कोई,
उस मूल जड़ को।
जिसके कारण ही दिलोमें,
फैलती है अराजकता।।


समानता का भाव तुम,
जरा रखकर तो देखो।
बदल जायेगी परिस्थितियां,
इस जमाने के लोगों।
बस थोड़ी सी इंसानियत, दिलोमें जिंदा तुम कर लो।
खुशाली छा जाएगी,
हमारे प्यारे भारत में।।


मोहब्बत वतन से करोगे,
तो जन्नत तुम्हें मिलेगी।
अमन शांति का माहौल,
देश के अंदर बनेगा।
और लोगो के दिलो से,
नफरत खुद मिटा जाएगी।
फिर विश्व में भारत का
ही सिक्का सदा चलेगा।।


विश्व परिवार दिवस पर मेरी रचना आप सभी को समर्पित है।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
15/05/2020


दिनांकः १५.०५.२०२०
दिवसः शुक्रवार
छन्दः मात्रिक
विधाःदोहा
शीर्षकः सृष्टि बनी अभिराम


निर्मलता    चहुँमुख  प्रकृति, सृष्टि बनी अभिराम।
स्वच्छ  सरोवर  नदी    जल , नीलांचल  श्री धाम।।१।।


हंसवृन्द    प्रमुदित  हृदय , नीलाम्बर   को   देख।
रैनबसेरा  विमल जल , किया   नमन  विधिलेख।।२।।


दिव्य   मनोरम दृश्य है , विमल   शान्त  परिवेश।
पवन स्वच्छ बहता  मुदित , रोग   मुक्त    संदेश।।३।।


रम्या  वसुधा    निर्मला , बनी  आज    सुखसार।
हंसराज  परिवार   सह , करे   प्रकृति    आभार।।४।।


रोमाञ्चित अभिसार रत,स्वच्छ सलिल अवगाह।
प्रीति मिलन  निच्छल  हृदय,  निर्भय   बेपरवाह।।५।।


आज सरित बन चारुतम , इठलाती  लखि तोय।
पुलकित मन स्वागत खड़ी,हंस चरण रज  धोय।।६।।


बदला जन   आचार  जग , धरा    प्रदूषण   दूर।
निर्मल नभ जल भू अनिल, प्रीति प्रकृति दस्तूर।।७।।


तजो स्वार्थ पथ नित गमन , रक्षण करो निकुंज।
वृक्षारोपण  सब   करो  , खिले प्रकृति रसपुंज।।८।।


रहे वायु जल नभ धरा , स्वच्छ  विमल  संसार।
रोग मुक्त जीवन सुखी , निर्मल मनुज   विचार।।९।।


तरु गिरि नद कर्तन सरित ,बंद करो खल पाप।
जीवन  धारा    श्वाँस  ये ,  बचो    रोग  संताप।।१०।।


रच निकुंज कवि कामिनी,सुन्दर जल नीलाभ।
जल विहार  हंसावली,हो जग सुख अरुणाभ।।११।।


कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक(स्वरचित)
नई दिल्ली


*प्रेम*
***************
प्रेम की ईक रेशमी डोर
बंधे थे हम तुम जिस रोज
वो लम्हा,वो पल अभी तक
जिंदा है
तेरे मेरे बीच समंदर फिर भी
गहरा है


पर्ण-पात,फूलों से महकते
घने तरावटी साहिल हैं हम
खट्टी-मीठी यादों की चादर में लिपटे अपने प्रेम के किस्से अभी तक जिंदा हैं
तेरे मेरे बीच समंदर फिर भी गहरा है


कितने-कितने बंधन अब
प्यारे रिश्तों के  बन गये
बेटी से बहु,बहु से माँ मैं
बन गई
बेटे से दामाद,दामाद से पिता तुम बन गये
पर एक परिवार के हिस्से हम ना बन सके
प्रेम के इतिहास में मगर नाम हमरा जिंदा है
तेरे मेरे बीच समंदर फिर भी गहरा है।


          डा.नीलम


*_विश्व परिवार दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई ।_*🙏🌹🙏


शीर्षक - प्रेम,
विधा - हाइकु


जज्बातों से
   गीत मधुर गायें
        प्रेम फैलायें ।।


पुलकित हो
     जीवन हो सुगंध
           प्रेम फैलायें ।।


ना रखें बैर
     जात-पात मिटायें
             प्रेम फैलायें ।।


सरस मन
   कटुता को भगायें
           प्रेम फैलायें ।।


जग ये देखे
      वसुधैव  जगायें
            प्रेम फैलायें ।।


मीरा दिवानी
     सा अलख लगायें
              प्रेम फैलायें ।।


रचना - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल
लक्ष्मीपुर, महराजगंज उत्तर प्रदेश।


तुमसे जबसे ये दोस्ती    कर ली।
गमज़दा अपनी ज़िन्दगी कर ली।
***
डूबते   जा  रहे .....किनारे   पर।
यूँ  लगे  हमने खुदकुशी कर ली।
***
आ रहा अब नहीं नज़र कुछ भी।
अपने हिस्से में    तीरगी कर ली।
***
जगमगाए गगन     सितारों से।
अपने आंगन में चाँदनी कर ली।
***
प्यार बेकार का   फ़साना   है।
हमने बेवज्ह आशिकी कर ली।
***
सुनीता असीम
15/5/2020


दुःख है इतना की
सुख सारे मौन हुए
कल तलक जो अपने थे
आज सभी कौन हुए।
अपने पराए लगने लगे जब,
परायों से अपनापन मिले
दर्द ही दर्द हो चारो ओर
काँटो से जब ये तन मिले
सर का पसीना लुढ़क कर
पैरों तक जब आ जाए
उम्मीद न जगे कहीं पर
जब घोर अंधियारा छा जाए
तब आँख बंद कर अपना तुम
जपो प्रभु का नाम......
मिलेगा तुमको आराम बंदे
मिलेगा बहुत आराम....


सम्राट की कविताएं


चीनी मीटर :


बिजली मीटर,कोरोना मीटर
दोनों चीन से आयातित,
दोनों की गति तेज ??


अतिवीर जैन पराग
मेरठ


*प्रकाश*
*********
प्रकाश चाहते हो तो
दीपक के समीप रहो
दीप के समीप सिर्फ
बिल्कुल समीप तो
एक अंधकार है।


दीपक से दूर रहो
बहुत बहुत दूर नहीं
दीपक से बहुत दूर
घोर अन्धकार है।


घोर अन्धकार है
दीपक  समीप भी
बहुत बहुत दूर भी
और प्रकाश है
दीपक के आस पास।


प्रकाश पाने के लिए
दीप के बिल्कुल नजदीक
और बहुत दूर ना जाओ
आसपास ही प्रकाश है।
*******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


कभी मैं भूल जाऊंगा
*****************
प्रिये!जब याद आती है,
सुनहरी याद आती है,
कि जैसे चांद अम्बर में,
लगाता मैन   फेरी  है,
चली एक बार आओ री,
यहां छाया  अंधेरी  है,
न घूंघट खोलती पीड़ा,
सताती रात दिन मन को,
कहो क्या बात ऐसी है
भुलाती  हो सजनि, जन को,
हृदय में स्नेह घिरता है,
धधकती प्रेम बाती है,


भुलाने हेतु मन पीड़ा,
पगों में चाल देता हूं,
जहां रुकती कहीं मंज़िल,
दिया इक बाल देता हूं,
सुबह फिर कारवां चलता,
बना राही सदा मग में,
शलभ दीपक शिखाओं का,
उमर के स्वप्न पर बनता
विरह बलवान गाती है।


कभी तुम भूल जाओगी,
किसी से प्यार तेरा था,
कभी मैं भूल जाऊंगा,
मधुर अधिकार मेरा था,
प्रिये, तुम दूर छाती हो,
अंधेरा -राज छाया है,
बहुत दिन की उदासी है,
किसी ने दिल दुखाया है,
भले सजती दीवाली हो
बिना संगिन न भाती है।
*******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड


या खुदा गर मुझे मौत देना ,


तो जन्नत ही देना ,


कफन हो या न हो तन पर ,


पर जहन्नुम कभी न देना ,


बाद मरने के जन्म लूं फिर ,


तो मुझे वतन मेरा भारत ही देना ,


कैलाश , दुबे ,


विषय :  🌹विश्व परिवार दिवस"🌹
दिनांकः १५.०५.२०२०
दिवसः शुक्रवार
छन्दः मात्रिक
विधा     दोहा
शीर्षकः 🗺️विश्व धरा परिवार🏜️


भारतीय   सिद्धान्त  है , विश्व  धरा    परिवार।
लघुतर है  पर चिन्तना, अपना  पर    आचार।।


हो नीरोग शिक्षित सभी , उन्नत धन    विज्ञान।
सहयोगी  परहित बने ,  दें  सबको    सम्मान।।


अपनापन के भाव हों , खुशियों  का    अंबार।
रोम रोम पुलकित श्रवण,प्रीत मधुर    परिवार।।


हो शीतल   निर्मल हृदय, खिले  मनोहर  बोल।
अर्पण तन धन आपदा ,शुभदायक   अनमोल।।


मददगार सुख   दुःख में,  दृढ़तर हो    विश्वास।
आत्मीय तन मन वचन, खड़े   साथ  आभास।। 


शक्ति।  बड़ी   है  एकता ,  करे  आपदा  मुक्त।
देश,  विश्व , परिवार में , संघ शक्ति  है    सूक्त।। 


हरि अनंत है हरि कथा , जग  अनंत   व्यवहार।
देश   काल   पात्रस्थली , दर्शन   भेद    विचार।।


मति विवेक दिव्यास्त्र से ,प्रीति रीति  चढ़ यान।
दूर  करें   मतभेद  को , सबको    दें   सम्मान।।


सँभल चलें   परिवार  में , है  नाज़ुक   सम्बन्ध।
तुला तौल रख   बोल को , मौन बचे   तटबन्ध।।


सबका सुख मुस्कान मुख,अमन सुखद संचार।
खुशी  प्रेम के  रंग   से ,  रंजित   घर   परिवार।।


शान्ति  प्रेम  मय हो धरा ,नीति  प्रीति    संसार।
मानवता     परिवार  हो , राजधर्म     सुखसार।।


कवि निकुंज शुभकामना, विश्व दिवस परिवार।
तजो  स्वार्थ  मनभेद  को, बनो  एक  गलहार।।


कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक (स्वरचित)
नई दिल्ली


*वो फिर शरारत कर गए*


वो फिर शरारत कर गए
सड़कों पर भोले-भंडारी
सियासतदां धर्म की अफीम
घोंट,मरने को उन्हें छोड़ गए


आंकड़ों में आंक मजलूम मजदूरों  को
हवाई पटरियां चला रहे
जबान की रेल चला-चला
मीडिया में पीठ अपनी थपथपा रहे


बैठ वातानुकूलित कमरों में
दर्द से लबरेज पाँवों केछालों
पर, सियासत का नमक छिड़क रहे
अपने को गमगुसार कह -कह वो फिर शरारत कर गए।


        डा.नीलम


काव्य रँगोली व्हाट्सएप्प समूह 14 मई 2020

दिनांकः १३.०५.२०२०
दिवसः बुधवार
विधाः मुक्त
विषयः मंजिलें
शीर्षकः मंजिलें
जीवन्त  तक  बढ़ते कदम,
चाहत  स्वयं  की   मंजिलें,
नित    बेलगाम     इच्छाएँ,
निरत कुछ भी कर गुजरने,
ख़ो मति विवेक नित अपने,
राहें     अनिश्चित    अकेले,
मिहनतकश  तन रनिवासर
चिन्तातुर  आकुल  मंजिलें।


आएँगी           कठिनाईयाँ,
कठिन   कँटीली   झाड़ियाँ,
विविध      गह्वर    खाईयाँ ,
नुकीले      पाषाण   टुकड़े ,
बाधित अपनों  से  मंजिलें,
धैर्य    आत्मबल      टूटेंगे ,  
सामने      होगी    साजीशें ,
मन   में    जगेगी   नफ़रतें,
बदले  की   आग  जलेंगी,
थक   बैठकर फिर  चलेंगे,
दूर  चाहत    से    मंजिलें।


आशंकित   अनहोनी    से ,
संघर्षशील          यायावर ,
झोंकते  यतन   सब   पाने,
सच झूठ छल कपट धोखे,
सहारे   सब     पगडंडियाँ,
सब कुछ  पाने  की   चाह,
क्षणिक दुर्लभ  इस जिंदगी,
अविरत    परवान   चढ़ती,
ऊँची       उड़ानें    मंजिलें।


हैं   मंजिलें       बहुरूपिये,
धन सम्पदा   शान  शौकत,
सत्ता   यश   गौरव   वाहनें,
अनवरत    चाह   जीने की,
न जाने क्या क्या पाले मन ,
बेबस  जीवन की   मंजिलें,
बढ़े  आहत  अनाहत   पग,
भू जात से  निर्वाण    तक ,
चढ़े  संकल्पित  ध्येय  रथ,
आश बस  चाहत  मंजिलें। 


कवि✍️ डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक (स्वरचित)
नयी दिल्ली


*गुरु तत्व नित्य है*
*****************
गुरु कोई व्यक्ति नहीं होता,
गुरु कोई शरीर नहीं होता,
गुरु तो व्यक्ति के अन्दर जो गुरुत्वा है,
वहीं गुरु तत्व होता है।


शरीर अनित्य है गुरु नित्य है,
व्यक्ति आज है परंतु कल नहीं है,
गुरु तत्व आज भी है और कल भी
गुरु एक शक्ति है जो नित्य है।


गुरु ईश्वर की कृपा से मिलता है,
गुरु समर्पण से मिलता है,
गुरु भाव से मिलता है,
गुरु प्रभु की अति कृपा से मिलता है।


गुरु के बिना ज्ञान नहीं मिलता है,
गुरु ही सद् बुद्धि प्रदान करता है,
गुरु के कारण शिष्य की पहचान है,
गुरु कृपा से भवसागर पार होता है।।
*******************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रुद्रप्रयाग उत्तराखंड
पिनकोड 246171


*दूर से नमस्कार।।आज सुरक्षित*
*जीवन  का यही   आधार।।।।।।*


थाम लो कदम कि बाहर कॅरोना
इंतज़ार      में    है।
बेपर्दा   बेवजह न   जाओ    कि
वो  बाजार    में  है।।
अभी खौफ में    रहो  कल   की
आज़ादी  के  लिए।
मत जाओ    मिलने   को कि वो
मौत के करार में है।।


कॅरोना योद्धा  बनो और  कॅरोना
के   संवाहक   नहीं।
जीवन अनमोल   बनो    कॅरोना
के     ग्राहक   नहीं।।
मास्क हैंड  वाश  दो  ग़ज़    दूरी
सदा ही बनाये रखना।
जान  बूझ कर   बुलाओ  यूँ   ही
मौत को   नाहक नहीं।।


घर में  व्यस्त     रहो    निबटायो
बचे सभी जरूरी काम।
जरा   सी      असावधानी   फिर
समझो   काम    तमाम।।
बस दूर से नमस्कार  बचाव और
यही     है   दवाई     भी।
सलाम करो उन  कॅरोना वीरों को
लगाते जो बाज़ी पर जान।।


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस* "
*बरेली।*
मो     9897071046
         8218685464


कविता:-
       *"आर्थिक प्रतिबन्ध"*
"आर्थिक मंदी का दौर ,
बढ़ने न पाये,
आर्थिक प्रतिबंधो पर-
करना होगा मिल कर विचार।
विदेशी अर्थ व्यवस्था पर अब,
रहना नहीं निर्भर-
स्वदेशी को ही बनाना होगा आधार।
स्थानीय वस्तुओं का करे प्रयोग,
हर हाथ को मिले रोज़गार-
जीवन सपने हो साकार।
छोड़ने होगे लुभावने सपने,
जो भटकाये कदम-
बनाये तुम्हें बेरोज़गार।
आर्थिक सम्पन्नता का हो विकास,
विदेशी नहीं -
स्वदेशी का हो प्रचार।
स्थानीय वस्तुओं का बढ़े प्रयोग,
आत्मनिर्भरता का -
स्वप्न हो साकार।
आर्थिक प्रतिबंधो पर करना विचार,
स्वदेशी अपना कर -
दें हर हाथ को रोज़गार।।"
ःःःःःःःःःःःःःःःःः          सुनील कुमार गुप्ता
sunilgupta
ःःःःःःःःःःःःःःःःःः          14-05-2020


धनाक्षरी
8+8+8+7


शिवकृपा बरसे तो,तन-मन हर्षित हो,
महादेव भक्ति से,प्रसन्न हो जाईये।


जटाधारी भयहारी,अखिलब्रम्हांडकारी,
ओमकार नादयोग,चिति में जगाईये।


नीलकंठ विषधर,गौरीश नागेश्वर,
सच्चिदानंद स्वरुप, आनंद बढ़ाईये।


सतिप्रियवर शिव,भोले अर्द्ध नारीश्वर,
गंगाधर शंभू शिव,शरण लगाईये।
ममता कानुनगो इंदौर


---- आर्थिक प्रतिबन्ध----
अनायास आई बेकारी
                    टूट पड़ी आपदा बढ़ी लाचारी
नहीं था समाधान बेरोजगारी का अब तक
            पर अब बेरोजगारी बनी खुद बड़ी महामारी
कोरोना वायरस ने विश्व की अर्थव्यवस्था बिगाड़ी
             महाशक्तियों का अहंकार टूट कर बिखर गया
रहता न कुछ भी शाश्वत पंक्ति को सिद्ध कर गया
              अब अर्थव्यवस्था को यदि लाना है पटरी पर
आर्थिक प्रतिबंधों को लागू करना है राष्ट्र पर
             मिलकर हम सभी करें इसकी तैयारी
स्व निर्मित उत्पादों का कर उपयोग बढायें साख हमारी
            आओ विश्व पटल पर अपनी अर्थव्यवस्था को बढायें
स्वावलम्बन का बाना पहन बाहरी तत्वों को भगायें
             आओ लौटें अपनी भरतीय सभ्यता की ओर
कुटीर व लघु उद्योगों का कर शुभारम्भ बनायें नई भोर
            रोजगार मिले सभी को बना रहेगा आत्मसम्मान
आर्थिक प्रतिबन्ध आवश्यक है इसका रखो सम्मान
डॉ निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान


शेर--
यह कह के गये पुरखे नस्लों से विरासत में
लम्हों की हिफ़ाज़त ही सदियों की हिफ़ाज़त है


🖋विनय साग़र जायसवाल


!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
🌞सुबह🙏🏼सबेरे🌞
     =========
          *धरा*
(मनहरण घनाक्षरी)
  ^^^^^^^^^^^^^^^
जल-वायु प्राण  देता,
जीवन  को  संवारता,
पर्वत   नदी    तलैया,
       जननी-वंदन है।
💫🌘
प्रभु   का  उपहार  है,
दे   रहे   उपकार   है,
धरती  माता के  रत्न,
      ये अभिनंदन है।
💫🌔
वन   इसकी  साँस है,
मिट्टी इसका  माँस है,
और   समंदर   बिना,
     ये नही जीवन है।
💫🌎
क्षमा  सबको  करती,
प्रणाम   मात  धरती,
सदैव  ही  मुस्कुराती,
     धरा को वंदन है।


*कुमार🙏🏼कारनिक*


🌅सुप्रभातम्🌅


दिनांकः १४.०५.२०२०
दिवसः गुरुवार
छन्दः मात्रिक
विधाः दोहा
शीर्षकः नीति नवनीत
जहाँ नहीं सम्मान हो ,  सुन्दर  सोच विचार।
बचे आत्म सम्मान निज, मौन बने आधार।।१।।


निर्भय निच्छल विहग सम, उड़ें मंजिलें व्योम।
नयी सोच नव भोर हो , मातु पिता भज ओम।।२।।


अहंकार पद सम्पदा , है नश्वर यह देह।
भज रे मन श्रीराम को , यश परहित नित नेह।।३।।


शत्रु बनाना सरल है , कठिन मीत निर्माण।
कपट विरत निःस्वार्थ मन, भाव मीत कल्याण।।४।।


ज्ञान मात्र आभास मन, हो जीवन  चरितार्थ।
कठिन साधना ज्ञान की , मन वश में कर पार्थ।।५।।


विनय शील सद्भावना , संकल्पित हो ध्येय।
शान्त धीर शुभ चिन्तना, सत्य प्रीत पथ गेय।।6।।


नयी भोर नव सर्जना , मानस हो अभिलास।
मंगलमय होगा दिवस , सदा रखें विश्वास।।७।।
कवि✍️डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"
नवदिल्ली


*आचार्यश्री को जाने*
विधा : भजन गीत


गुरु की महिमा
गुरु ही जाने।
भक्त उन्हें तो
भगवान पुकारे।
जो भी श्रध्दा
भाव से पुकारे।
दर्शन वो सब पावे।
ऐसे आचार्यश्री की
जय जय बोलो।
मुक्ति के पथ को
खुद समझ लो।।


कितने पावन
चरण है उनके।
जहाँ जहाँ पड़ते
तीर्थ क्षैत्र वो बनते।।
ऐसे ज्ञान के सागर को।
सब श्रध्दा से
वंदन है करते।।
ऐसे आचार्यश्री की
ऐसे आचार्यश्री की
जय जय बोलो।
मुक्ति के पथ को
खुद समझ लो।।


जिन वाणी के
प्राण है गुरुवर।
ज्ञान की गंगा
बहती मुख से।
जो भी शरण
इनके है आता।
धर्म मार्ग को
वो समझ जाता।।
ऐसे आचार्यश्री की
जय जय बोलो।
मुक्ति के पथ को
खुद समझ लो।।


बुन्देखण्ड की
जान है गुरुवर।
घर घर में
बसते है मुनिवर।
धर्म प्रभावना बहाते
शान बुन्देखण्ड की कहलाते।
मोक्ष मार्ग का
पथ दिखला कर।
आत्म कल्याण के
पथ पर चलाते।।
ऐसे आचार्यश्री की
जय जय बोलो।
मुक्ति के पथ को
खुद समझ लो।।


कितने पशुओं की
हत्या रुकवाये।
जीव दया केंद
अनेक खुलवाये।
स्वभिलंबी बनाने को
कितने हस्तकरधा लगवाए।
इंसानों के प्राण बचाने
भाग्यादोय आदि खुलवाये।।
ऐसे आचार्यश्री की
जय जय बोलो।
मुक्ति के पथ को
खुद समझ लो।।


शिक्षा दीक्षा के लिए
ब्रह्मचारी आश्रम और 
प्रतिभा स्थली खुलवाये।
ज्ञान ध्यान पाकर के
बने तपस्वी और उच्चाधिकारी।
भ्रष्टाचार को ये
लोग मिटावे।
महावीर राज ये
फिर से बसावे।।
ऐसे आचार्यश्री की
जय जय बोलो।
मुक्ति के पथ को
खुद समझ लो।।


जय जिनेन्द्र देव की
संजय जैन (मुम्बई)
14/05/2020


मातृ दिवस पर.......


माँ
*************---
प्रियम धूप छांव सा अम्माँ का आंचल जहाँ चैन शीतल देता सदाऐं।
सर्द गर्मी या पावस गयीं जाने कितनी हारी अम्माँ से आख़िर  फिजाऐं।।
लड़ गयी काल से दु:ख घुटने बल शिकन की लकीरें नदारद मिलीं,
माँ का सानी नहीं माँ अनमोल भी प्रखर महफूज रखतीं माँ की दुआऐं।।


***********************************
डॉ प्रखर
..


2122/2122/2122/212
गीतिका 🖋


मुखडा ☺️
आज हमने दिल को अपने ग़म ज़दा रहने दिया....।
यादों के पन्ने खुले तो फ़लसफ़ा रहने दिया..।।


अंतरा 🎙
वो कभी जब थे हमारे दरमियाँ कुछ बात थीं
🌹थी सुहानी आरजूयें अरु सुहानी रात थीं
वो गये जब दूर हमसे फासला रहने दिया
यादों के पन्ने खुले तो फलसफा रहने........।।


हुश्न वो शब भर रहा और फासले बनते रहे
🌹जिंदगी के कारवाँ के सिलसिले चलते रहे
आरजू को हमने अपनी भी दबा रहने दिया
यादों के पन्ने खुले तो......।।


डायरी में जो रखे थे गुल कभी हमने दबा
🌹छू सकी कब हाथ कोई छू सकी न फिर हवा
याद में उनकी जो खोले फिर छुपा रहने दिया
यादों के पन्ने खुले तो...।।


ज़िंदगी तो ज़िंदगी है बस में सरिता के कहाँ
🌹प्रेम की है वो पुजारिन मन बना है आसमाँ
इक ऩज़र की चाह का बस आसरा रहने दिया
यादों के पन्ने खुले तो फलसफा रहने .........।।


सरिता कोहिनूर 💎
बालाघाट


कोई नादान किसी को भी डुबो सकता है।
अब किसी पे तो भरोसा भी न हो सकता है।
***
सुर्खरू होता गया वो तो मुसीबत में यूं।
दूर कोई भी दुखों से यूँ न हो सकता है।
***
खुदपे विश्वास किसानों को अगर है होता।
फूल बंजर हो धरा उसपे भी बो सकता है।
***
वो बुढ़ापे में नहीं साथ दिया करते पर।
बोझ उनका पिता ताउम्र भी ढो सकता है।
***
दर्द सारे जो अकेले ही पिये जाता हो।
वो दिखावे को नहीं भीड़ में रो सकता है।
***
सुनीता असीम
14/5/2020


दिनांकः १४.०५.२०२०
दिवसः गुरुवार
विधाः  पीयूष वर्ष छंद गीतिका
शीर्षकः  🤔जिंदगी☝️


जीवन जब टूटकर बिखरने लगे।
अरमान सब बेवफा लगने  लगे।।
अपने इतर का सही पहचान हो।
जिंदगी जीना  यहीं अहसास हो।।


आभास बस जिंदगी हम मर मिटें।
दिल्लगी  अनज़ान  से ली करवटें।।
दे तसल्ली बढ़  चलो हम  साथ हैं।
उत्थान पथ निर्माण को  फिर चलें।। 


सभी रिश्ते स्वार्थ  के अपने  नहीं।
जात हैं हम जिस धरा सपने वही।।
माँ भारती सेवार्थ जो कर्तव्य  हो।
आन बान रक्षण करूँ स्व जिंदगी।।


जिंदगी  पा  चेतना   नव   राह   को।
मंजिलें   फिर  से  सजी उत्थान को।।
धीर  नित  गंभीर   बन  रण बाँकुरा।
ध्येय बस  हो  जिंदगी, जय  राष्ट्र हो।।


मान  तुम  साफल्य ख़ुद की जिंदगी।
सारथी सच का बनो   नित  पारखी।।
प्रेम रथ   मुस्कान  साधें   कोप  को।
कीर्ति गाथा लिख वतन बलिदान को।।


कवि✍️डॉ.राम कुमार झा "निकुंज"
रचनाः मौलिक (स्वरचित)
नई दिल्ली


*लाचार बेबस श्रमिक*


मजदूरों की मजबूरी पर
ये कैसा कुटिल प्रहार हुआ।
सड़को पर मजदूर बिलखता,
रोने को लाचार हुआ।।


ऑंख में आँसू तन पर झोला,
भूख- प्यास से बोझिल मन।
पैर मे छाले,अन्न के लाले,
बेबस व्यथित लाचार है तन।।


मजदूरों की व्यथा-कथा को,
आज कोई ना पहचाने।
सत्ताधारी क्रूर बने है,
इनका दर्द नही जाने।।


बेबस सारे श्रमिक चल रहे,
विपत्ति काल से हो लाचार।
भूख-प्यास मन पर छाले है,
किस्मत की कठिन पड़ी है मार।।


दर्द दुःखों की भीषण विपदा,
मजदूरों के जीवन आयी।
बच्चें भी भूरव से बिलख रहे है,
कराह रहा हर एक भाई।।


पैदल ही चल पड़े नियति पर,
मंजिल है बस गाँव की ओर।
थककर सड़कों पर गिर जाते,
दर्द ही दर्द दिखे चहुँ ओर।।


पैरों मे रक्तिम छाले है,
हृदय दर्द से रोता है।
कोई नही विवशता समझे,
श्रमिक बेचारा सब खोता है।


ऐसा कैसा दृश्य भयंकर
भारत माँ की धरती पर।
माँ बच्चें सड़कों पर बिलख रहे है,
मानवता की धरती पर।


ट्रेन की पटरी बनी थी मरहम,
थके श्रमिकों के घावों पर।
क्रूर मृत्यु ने ग्रास बनाया,
पल भर मे उन  छावो पर।।


बड़े-बड़े सपनों को लेकर
श्रमिक शहर मे भटका था।
नव भारत के नये सृजन का
ये कठोरतम झटका था।।


क्या मुफ्त नही कर सकते थे,
गरीब श्रमिक की  राहों को।
झर-झर अश्नु छलक जाते है,
खून भरी उन आँखों को।।


सेवादार बने क्रूर आज,
कुछ भी नजर नही आता।
श्रमिक भटक रहा सड़कों पर,
अब ये सफर नही भाता।।


बवंडर ने उजाड़ दिया
श्रमिको का घरौंदा।
तिनका-तिनका बिखर गया,
भूख ने तनऔर मन रौदा।।


निरीह, बेबस आँखों मे
उमड़ रही अश्क की धार।
मानवता निस्तब्द्ध खड़ी,
नही करता कोई उपकार।।


सूरज ने झुलसाया तन मन,
फिर भी मजदूर चलते रहते।
लूँ की निर्मम लपटों मे भी
मंजिल भूल नही सकते।।


श्रमिक जनो पर रहम करो अब,
राष्ट्र धर्म के शुभ कारो।।
इनकी विपदा अति भयंकर,
इन्हे सड़कों पर यू मत मारो।।
✍आशा त्रिपाठी


इम्तेहान अभी बाकी है
🌻🌻🌻🌻🌻🌻


जीवन के सफर में कुछ
काम अभी बाकी है
अपने इरादों का इम्तेहान
अभी बाकी है
अपने मन के सपनो को
सच कर लूं ऐसे
रोशन होता जग में कोई
सितारा जैसे
उर के भावों का सम्मान
अभी बाकी है
अभी तो नाप पायी हु सिर्फ
मुट्ठी भर जमीन
आगे सारा आसमान अभी
बाकी है
मेरे इरादों का इम्तहान अभी
बाकी है
🌻🌻🌻🌻🌻🌻


स्वरचित ऋचा मिश्रा
      🌹  "  रोली"🌹
  श्रावस्ती बलरामपुर
  उत्तर प्रदेश


*मन*
मन कहीं लगता नहीं
न जाने क्यूं उदास रहता है
मन मेरा होकर भी
न जाने किसके पास रहता है
ऐ मन मेरे बता मुझे
तू दूर मुझसे जाता क्यूं है
छीनकर खुशी मेरी
मुझको यूं सताता क्यूं है
दूर रहकर ही मुझसे
गर तुझको सुकून मिलता है
मुरझाकर मेरे मन को
तेरे मन का फूल खिलता है
तो तू खिले महके मुस्काए
मैं रब से ये दुआ करता हूं
तू खुश है तो मैं खुश हूं
तेरे ग़म से दुखी होता
तेरे हंसने से हंसता हूं
तेरे रोने से मैं रोता
ऐ मन तू मुझसे दूर न जा
समझ तू मेरे जज़्बात
तू कर ले  मुझसे बात
तुझ बिन हूं मैं अधूरा
तुझसे ही रहता मैं भरा पूरा
तू ही मेरा सच्चा साथी है
तुम बिन मेरा जीवन कैसा
मैं दीया तो तू मेरी बाती है।


शशि मित्तल "अमर"


*रुकता नहीं आज मेरा सफ़र*
********************
आज जीवन जलाओ न तुम,
कल्पनाएं अगर डूब जाएं कहीं,
चल रही जिन्दगी जब जाए कहीं,
खोल घूंघट हंसे मौत होकर खड़ी,
पास मंजिल अगर रूठ जाए कहीं,
प्राण देकर चुनौती रुलाओ न तुम।


एक दिन के लिए आज मौका मिला,
क्या प्रणय की तरी हेतु झोंका मिला,
मैं खड़ा इस किनारे तुम्हारे लिए,
प्रीति उर में बसे आज धोखा मिला,
प्राण! सुनकर कहानी भुलाओ न तुम।


प्यार पर जिन्दगी आदमी जी रहा,
प्यार के ही लिए है जहर पी रहा,
प्यार के लिए मन मसोसे  हुए,
आज कौन कफ़न पर कफ़न बुन रहा,
क्या कहूं मैं प्रिये! गीत गाओ न तुम।


बात मन में लगी पीर उर में जगी,
नींद बैरिन हुई, दूर मुझसे बड़ी,
सांझ मन में ललाती उछलती गई,
दीप की लौ जिया को मसलती गई,
स्वप्न मेरे नयन में झलकते रहे,
अश्रु जाने अजाने लुढ़कते रहे।


आज जाने कहां से सपन उड़ रहे,
आज जाने कहां से हृदय जुड़ रहे,
आज जाने कहां की लगन है, प्रिये,
हम अजानी दिशा में अभी मुड़ रहे,
पंथ मेरा सुकोमल नहीं है मगर,
भूलती  है नहीं आज तेरी डगर,
मैं कदम को बढ़ाते हुए चल रहा हूं,
और रूकता नहीं आज़ मेरा सफ़र।।
********************
कालिका प्रसाद सेमवाल
मानस सदन अपर बाजार
रूद्रप्रयाग उत्तराखंड


बदलते  खून के रिश्ते
कलियुग में आज
ये कैसा दौर आया है
पिता के जनाजे को
कंधा देने से पुत्र ही कतराया है
कोरोना के संकट काल में
खून के रिश्ते भी हुए पराये हैं
परिजन हो या रिश्तेदार
उसे देख सभी घबराए हैं
ये दृश्य कौनसी दुनिया का है
जहाँ अपने हुए पराये हैं
वारिस के होते हुए
आज वो लावारिस सा दुनिया से जाए है
कलियुग की चरम सीमा पर
अब क्या क्या मनुष्य देखता जाए है
आँखों से नीर बहे लेकिन
तन जड़ हो स्थिर रुक जाए है
लाचार हुए बेबस होकर
अपना अंतिम फर्ज न निभा पायें हैं
मानवता की रक्षा करने
तब देवदूत बन वे आये हैं
पुलिस, प्रशासन, डॉक्टर मिल
अंतिम क्रियाकर्म करवाये हैं
बेटे को माँ ही रोक रही
कोरोना से डर सोच रही
अब पति लौटके न आएगा
बेटा गर संक्रमित हो जाएगा
उसके तो प्राण बचालूँ मैं
उसको आँचल में छुपालूं मैं
हृदय पर भारी पत्थर रख
देखती है पति को अंतिम क्षण
छाती से लगा के बच्चों को
उस पीड़ा को सह जाती है
ये कैसे खून के रिश्ते हैं
जहाँ मौत अब हुई पराई है


डॉ निर्मला शर्मा
दौसा राजस्थान


काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार 15 मई 2020

नीरजा 'नीरू'
स्थान - लखनऊ
रुचि - कविता लेखन 
शैक्षिक योग्यता-  स्नातकोत्तर 
व्यवसाय - अध्यापन ( प्रवक्ता )
साझा संकलन - भाव कलश, दस्तक ,नीलांबरा 
सम्मान - उड़ान साहित्य रत्न सम्मान 
 विभिन्न काव्य मंच पर प्रतिभागिता
काव्य रंगोली सहित बहुत सी पत्र पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन


द्वार पर तेरे खड़े हैं 
~~~~~~~~~~


द्वार पर तेरे खड़े हैं ,माँगते वरदान हैं
दो हमें सद्मार्ग भगवन ,हम बड़े नादान हैं


बीच भव में ही फँसी  है ,डगमगाती जिंदगी 
अब उबारे तू हमें जो ,कर रहे हैं बंदगी 
पाप में  डूबे रहे हम ,पुण्य से अंजान हैं
दो हमें सद्मार्ग  भगवन हम बड़े नादान हैं


बैर ईर्ष्या में  रहीं रत, पीढ़ियाँ दर पीढ़ियाँ 
प्रेम की  भाषा न जानें ,बंद मन की  खिड़कियाँ 
एक दूजे को मिटातीं  ,क्यूँ बनी हैवान  हैं
दो हमें सद्मार्ग  भगवन ,हम बड़े नादान हैं


द्रव्य के  जालों में  फँस कर ,हम सदा उलझे रहे 
मोह माया में  फँसे फिर ,अदबदा उलझे रहे
ढूँढते हम छद्म सुख को ,बन रहे शैतान हैं
दो हमें सद्मार्ग  भगवन ,हम बड़े नादान हैं


छल कपट के  द्वार को तज ,त्याग को हम जी सकें
धैर्य की  प्रतिमूर्ति बनकर ,क्रोध को हम पी सकें 
प्राण आएं काम जग के  ,बस यही अरमान हैं 
दो हमें सद्मार्ग  भगवन ,हम बड़े नादान हैं


जग में  फैली कालिमा को ,तेज से हम धो सकें
बीज सारे प्रेम के  ही ,हम धरा में बो सकें 
छोड़ सारे अवगुणों को , बन सकें इंसान हैं 
दो हमें सद्मार्ग  भगवन ,हम बड़े नादान हैं 


           _ नीरजा'नीरू'


" सहमे हैं आँखों में आँसू "
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कागज कलम कहाँ से लाएँ
जब रोटी के ही लाले  हैं
सहमे हैं आँखों में आँसू
अब देख पाँव के छाले हैं


मन्दिर मस्जिद सब ही छाना 
पर दिखा नहीं भगवान वहाँ 
गीता और कुरान बाँचता 
पग पग पर ही हैवान  वहाँ
सोने के  हैं ढेर चिढ़ाते 
बढ़ रुपयों के अंबारों  को
दर नौनिहाल भूखे मरते
पर शर्म नहीं दरबारों को


सूखे सूखे खुद ही प्यासे 
दिखते सब ही पौशाले हैं 
सहमे हैं आँखो में आँसू 
अब देख पाँव के  छाले हैं 


रक्षक ही भक्षक बन बैठा
फिर कैसे हो अब न्याय कहीं
न्यायालय के  चक्कर काटे
पीड़ित ही तो हर बार यहीं
शेरों की  खालें  ओढ़ ओढ़
गीदड़ ये शान से घूम रहे
न्याय तंत्र की लचर व्यवस्था 
की शह पाकर ही झूम रहे


विधि की  देवी निकले कैसे 
जब दरवाजे पर ताले है
सहमे हैं आँखों में आँसू
अब देख पाँव के  छाले हैं


प्राणों की  बाजी खेल रहे 
वे प्राण हथेली पर धर कर 
जनता को बैठे चूस रहे 
ईमान जेब में ये भर कर 
वादे ही वादे करते हैं
जब-जब चुनाव  सर पड़ते हैं
बिन वादों के ही खेल जान 
 वो रिपु दर कीलें गड़ते  हैं


सूखी रोटी पर हैं निर्भर 
जो भारत के रखवाले है
सहमे हैं आँखों में आँसू
अब देख पाँव के  छाले हैं


है कचरा किस्मत गर अपनी 
तो किस्मत को ललकारेंगे
हों राहें दुर्गम ही कितनी 
हर बाधा को पुचकारेंगे 
लेकर हम कर्मों का  थैला 
अब राह नदी की  मोड़ेंगे
यूँ किस्मत के हाथों में अब 
और न किस्मत को छोड़ेंगे


गर हैं गरीब तो गम कैसा 
हम  नौनिहाल मतवाले है
सहमे हैं आँखों में आँसू
अब देख पाँव के  छाले हैं


       _नीरजा'नीरू'


विधाता छंद आधारित गीत :
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जगत में  लौट गर आऊँ ...
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जगत में  लौट गर आऊँ ,धरा फिर से यही पाऊँ
सुनहली धूप की  किरणों ,सुनो ये बात बतलाऊँ 


निलय मेरा ठिकाना है ,सुखद सी छाँव का  हर दम 
घनेरी प्रीत का  सरगम ,गमों  का  है सदा मरहम 
जरा आँचल तले वो ले ,जहाँ के  गम भुला जाऊँ 
सुनहली  धूप की  किरणों ,सुनो ये बात बतलाऊँ 


नदी की  करवटों में  है ,रवानी  जिंदगानी  की  
गगनचुम्बी नगों  में  है ,कहानी नौजवानी  की 
सदा बसता  तुहिन में  जो ,वही संगीत फिर गाऊँ
सुनहली  धूप की  किरणों ,सुनो ये बात बतलाऊँ 


सिवइयाँ ईद गर देती ,दिवाली रोशनी बोती 
खुशी के  रंग में  डूबी ,हुई  होली सदा होती
यहाँ अरदास कर पावन ,दुखों का  गढ़ सदा ढाऊँ 
सुनहली  धूप की  किरणों ,सुनो ये बात बतलाऊँ 


सुबह मंदिर  बजे घंटी  ,उषा सबको जगाती है 
अजानो की धुनों से मिल ,नया सरगम सुनाती है 
जहाँ बुद्धा  दिखाते हैं ,वही फिर राह अपनाऊँ 
सुनहली  धूप की  किरणों ,सुनो ये बात बतलाऊँ 


यहीं मैं जन्म लूँ  फिर से ,यही माटी बिछौना हो 
असुर को ढेर कर पाए ,वही फिर से खिलौना हो 
तिरंगे का  सदा परचम ,गगन में  दूर लहराऊँ 
सुनहली धूप की  किरणों ,सुनो ये बात बतलाऊँ 


        
          _नीरजा 'नीरू'


विष्णुपद छंद आधारित ...
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तर्क लगाओ जो ...
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सच का  मुखड़ा  जीते हरदम , देर भले ही हो 
झूठा मुखड़ा  हर पल नत हो ,न्याय कभी भी हो
इसी लोक में  मिलता है फल ,मानव कर्मों का 
दूजा  कोई लोक कहीं है ,भ्रम है धर्मों का  


अन्तर्मन  से सोचें जो हम ,तर्क करें खुद से 
मिल जाएंगे प्रश्नों के  हल ,जो हैं अद्भुत से 
कहाँ छिपा है ईश्वर मानव ,ढूँढ न पाया है 
धर्मो के  आडम्बर ने बढ़ ,जाल बिछाया है 


मारें  काटें  पोथी पढ़ पढ़,नाम उसी का  लें
समझें क्या वो मर्म धर्म का  ,खुद को धोखा दें
ईश्वर क्या बहरा बन बैठा ,क्यूँ आवाजें दो 
ईश्वर क्या अँधा बन बैठा ,खुद ही देख न लो 


पत्थर पे रगड़ोगे माथा ,क्या देगा तुमको 
चिल्लाओगे बार बार भी ,कहाँ सुनेगा  वो 
खोलो  ज्ञान चक्षु तुम अपने ,तर्क लगाओ जो 
पा जाओगे खुद में उसको ,सच अपनाओ तो 


              _नीरजा'नीरू'


चलो इंसान हो जाएँ 
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धरा का  थाम कर आँचल,गगन की शान हो जाएँ 
न हिंदू हों न मुस्लिम हों ,चलो इंसान हो जाएँ


रहे तेरे न मंदिर में ,रहे मेरे न मस्जिद में
खुदा बसता दिलों में है,कभी समझे न हम जिद में 
ज़रा सा झाँक लें भीतर, सही अनुमान हो जाएँ
न हिंदू हों न मुस्लिम हों ,चलो इंसान हो जाएँ


रगों  में  रक्त जो बहता ,दिखे वो एक जैसा है 
कहीं काला न पीला है,लगे वो तप्त रवि सा है
इसे आधार मानें तो ,नई पहचान हो जाएँ
न हिंदू हों न मुस्लिम हों , चलो इंसान हो जाएँ


यहाँ का तू  न मालिक है ,यहाँ का  मैं न मालिक हूँ
बचा क्या शूरमा कोई ,यही सच सार्वकालिक है 
करें हम कर्म सब पावन ,यही अरमान हो जाएँ
न हिंदू हों न मुस्लिम हों ,चलो इंसान हो जाएँ 


सभी अवतार से बढ़कर ,मनुज का  रूप है होता 
इसी में देव है बसता ,यही है दैत्य को ढोता 
बढ़ा कर दैत्य गुण को हम ,नहीं शैतान हो जाएँ 
न हिंदू हों न मुस्लिम हों ,चलो इंसान हो जाएँ 


               _नीरजा'नीरू'


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