भरत नायक "बाबूजी"

भरत नायक "बाबूजी"


2- माता का नाम- स्व. चम्पादेवी नायक


 पिता का नाम- स्व. अभयराम नायक


सहधर्मिणी का नाम- श्रीमती राजकुमारी नायक


संतान- श्रीमती रजनी बाला चौधरी (बडी- पुत्री)


दुष्यंत कुमार नायक (छोटा- पुत्र)


3- स्थाई पता- लोहरसिंह, रायगढ़ (छ.ग.), पिन- 496100


4- मो. नं.- 9340623421


5- जन्म तिथि- 11- 06- 1956


जन्म स्थल- लोहरसिंह, रायगढ़ (छ.ग.)


6- शिक्षा- स्नातकोत्तर (हिंदी, समाज शास्त्र), बी. टी., रत्न


7- व्यवसाय- सेवा निवृत्त व्याख्याता


8- प्रकाशित रचनाओं की संख्या- पंच शताधिक


9- प्रकाशित पुस्तकों की संख्या- साझा संकलन- तीस, एकल- एक ("भोर करे अगवानी"- छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह)


10- काव्य पाठ का विवरण- दिल्ली सहित देश के विभिन्न भागों के सैकड़ों मंचों पर काव्य पाठ अध्यक्षता, मुख्य आतिथ्य,विशेष आतिथ्य एवं आकाशवाणी से प्रसारण।


11- सम्मान का विवरण- छ. ग. शासन, प्रशासन एवं भा. द. सा. अकादमी नयी दिल्ली से डॉ. अम्बेडकर फैलोशिप सम्मान, अखिल भारतीय राष्ट्रीय कवि संगम छत्तीसगढ़ इकाई से वरिष्ठ साहित्यकार दिनकर सम्मान के साथ शताधिक विभिन्न सम्मान एवं अभिनंदन ।


12- लेखन- हिन्दी एवं छत्तीसगढ़ी भाषा में स्वतंत्र लेखन।


प्रतिनिधित्व- नवोन्मेष रचना मंच घरघोड़ा, रायगढ़ का संस्थापक अध्यक्ष, कला कौशल साहित्य संगम छत्तीसगढ़ का संस्थापक/अध्यक्ष, भरत साहित्य मंडल, लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.), अनेक साहित्यिक पटलों एवं साहित्यानुरागियों का मार्गदर्शन।


13- Email ID- bharatlalnaik3@gmail.com


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१ - 


*शारदे! शुभ वरदान दे*


(गगनांगना छंद)


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विधान- १६+ ९= २५ मात्रा प्रतिपद, पदांत SlS, युगल पद तुकांतता।


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*शब्दों के संयोजन को माँ! सरगम-तान दे।


अतुल-अमल-अवधान शारदे! शुभ वरदान दे।।


साथ साधना के हिय सच्चा, भावन-भान दे।


घन-तम-अज्ञान नाश कर माँ! प्रभा-प्रतान दे।।


 


*स्वर- सुर समृद्ध सदा होवे, वर विश्वास दे।


शुचि-तुंग-तरंग-उमंग नयी, नित आभास दे।।


जड़ता का कर विनाश मन से, उर-उल्लास दे।


माता! हरकर संताप सभी, हृदय-हुलास दे।।


 


*बहा ज्ञान-गंगा कल्याणी, कर कल्याण दे।


संसार सकल सुखमय कर दे, भय से त्राण दे।।


जीवन का पथ आलोकित हो, ज्योति-प्रमाण दे।


जग-जीवन-धुन अनुरागित हो, पुलकित प्राण दे।।


 


*पुस्तक प्रतीक पुण्य-पाठ का, है तव हाथ में।


वीणा की धुन संदेश सदा, सुखकर साथ में।।


ज्ञान-विवेकी नीर-क्षीर का, भर दे माथ में।।


डोले जब धीरज तो देना, संबल क्वाथ में।।


 


*वेद-शास्त्र-उपनिषद सर्जना, ग्रंथ महान दे।


श्लोक-सूक्ति कल्याणी-कविता, नित नव गान दे।।


बुद्धि-प्रखर कर, हंसवाहिनी! परिमल ज्ञान दे।


परिपूरित झिलमिल तारों से, व्योम-वितान दे।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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२ - 


*माँ का अस्तित्व* (रोला छंद) -------------------------------------------


विधान- ११ एवं १३ मात्रा पर यति के साथ प्रतिपद २४ मात्रा, चार चरण, युगल पद तुकांतता। 


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*माँ है जग-आधार, इसी में विश्व समाये।


माँ के बिन उपकार, जनम कोई कब पाये ??


पीकर माँ का दूध, छाँव ममता की पाये ।


जग में है विख्यात, किसे माता न सुहाये ??


 


*माँ तो है वरदान, हरे वह विपदा सारी।


सृष्टि-वृष्टि हर दृष्टि, मातु की प्यारी-न्यारी।।


ऋद्धि-सिद्धि हर तुष्टि, अतुल है अपार है माँ ।


विश्व-विशद-प्रतिरूप, स्वयं ही विहार है माँ ।।


 


*माँ तो सतत दयालु, काज हर करती पूरा ।


करती है माँ पूर्ण, पिता का प्यार अधूरा ।।


बुरी बला दे टाल, लगाती काला टीका।


पूजा की है थाल, ऋचा वेदों-सम नीका।।


 


*साँसों का सुरताल, हृदय में बन रहती है।


निज संतान-शरीर, रुधिर बनकर बहती है।।


जग-उपवन में फूल, बनी है सुगंध भी माँ ।


भाले निज परिवार, नेक है प्रबंध भी माँ ।।


 


*माँ का जो है त्याग, सोच लो मन में अपना।


क्यों लेते हो छीन? मातु का सुंदर सपना।।


जो है निज भगवान, मान दो माँ को आओ ।


जानो जग का तीर्थ, मातु-पद माथ-झुकाओ ।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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३ - 


*"अपना देश महान "*(सरसी छंद गीत)


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विधान-16+ 11= 27 मात्रा प्रतिपद, पदांत Sl, युगल पद तुकांतता।


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*लहराता है ध्वजा-तिरंगा, भारत की है शान।


लाख नमन है इस मिट्टी को, अपना देश महान।।


देश हमारा प्यारा-न्यारा, इस पर है अभिमान।


लाख नमन है इस मिट्टी को, अपना देश महान।।


 


*धोता पाँव सदा सागर है, मुकुट हिमालय माथ।


जीवनदायी बहतीं नदियाँ, प्रगति-लहर के साथ।।


हरियाली से खुशहाली का, मिला विमल वरदान।


लाख नमन है इस मिट्टी को, अपना देश महान।।


 


*बहती सुरसरि है शुचिता की, रवितनया सम भाव।


सरस्वती-सत्संगति मिलती, रहे न द्वेष-दुराव।।


है सच संगम गहन-गुणों का, देव-लोक प्रतिमान।


लाख नमन है इस मिट्टी को, अपना देश महान।।


 


*वीरों की यह धरा पुनीता, अमल अमोलक भान।


जाए जान न मान गँवाये, शूर-सुधीजन खान।।


मुस्लिम गीता गा सकते हैं, हिंदू पढ़ें कुरान।


लाख नमन है इस मिट्टी को, अपना देश महान।।


 


*समरसता का सागर लहरे, हो नित नव शुचि भान।


इस मिट्टी पर मिट जायेंगे, रक्षित करने आन।।


"नायक" जप-तप-योग-भजन में, हो भारत-गुणमान।


लाख नमन है इस मिट्टी को, अपना देश महान।।


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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४ - 


*"गंगा जीवनदायिनी"* (वर्गीकृत दोहे)


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¶गंगा जीवन दायिनी, धरती का शृंगार।


शैल-सुता अवदान से, है जग-जन-उद्धार।।1।।


(16गुरु,16लघु वर्ण, करभ दोहा)


 


¶गंगा है अति पावनी, मनुज करे निष्पाप।


हरती है अघनाशिनी, दैहिक-दैविक ताप।।2।।


(15गुरु,18लघु वर्ण, नर दोहा)


 


¶आयी लेकर स्वर्ग से, पावन-परिमल धार।


जल से धरती सींचकर, सतत करे उद्धार।।3।।


(13गुरु,22लघु वर्ण, गयंद/मृदुकल दोहा)


 


¶गंगोत्री से निकलकर, बहे नगर-वन-ग्राम।


गंगा सागर में मिले, गंगासागर धाम।।4।।


(15गुरु,18लघु वर्ण, नर दोहा)


 


¶बहती जाती है जहाँ, लगे स्वर्ग का भान।


मिट्टी करके उर्वरा, देती जीवन-दान।।5।।


(18गुरु,12लघु वर्ण, मण्डूक दोहा)


 


¶कठिन भगीरथ दिव्य तप, प्रण का है परिणाम।


मर्म महत मंदाकिनी, धायी धरती धाम।।6।।


(13गुरु, 22लघु वर्ण, गयंद/मृदुकल दोहा)


 


¶धाम त्रिवेणी बन बसा, संगम राज-प्रयाग।


पावन गंगा स्नान से, जीवन हो बेदाग।।7।।


(16गुरु, 16लघु वर्ण, करभ दोहा)


 


¶पावन गंगा ध्यान धर, लो परलोक सुधार।


कल्पवास कर माघ में, हो भवसागर पार।।8।।


(14गुरु, 20लघु वर्ण, हंस/मराल दोहा)


 


¶गंगाजल के पान से, मोक्ष मिले तन-प्राण।


माता है भवतारिणी, करती है कल्याण।।9।।


(17गुरु, 14लघु वर्ण, मर्कट दोहा)


 


¶गंगा में विष घुल रहा, चिंतन की है बात।


मानवकृत यह आपदा, जैविक जीवन घात।।10।।


(14गुरु, 20लघु वर्ण, हंस/मराल दोहा)


 


¶सरिता दूषित हो रही, करना गहन विचार।


गंगा के उद्धार से, मानव का उद्धार।।11।।


(16गुरु, 16लघु वर्ण, करभ दोहा)


 


¶अमिय सरिस सुरसरि सलिल, पावन परम प्रबोध।


गंगाजल पर हो रहे, नित-नित नूतन शोध।।12।।


(8गुरु, 32लघु वर्ण, कच्छप दोहा)


 


¶सुरसरि शोधन सोच पर, केन्द्रित हो अवधान।


महत जगत-कल्याण का, गंगा है वरदान।।13।।


(12गुरु, 24लघु, पयोधर दोहा)


 


¶धो लो मन के मैल को, क्या होगा कर जाप?


मन की गंगा साफ हो, मिटे सकल संताप।।14।।


(17गुरु,14लघु वर्ण, मर्कट दोहा)


 


¶गंगा महज नदी नहीं, है देवी-प्रतिमान।


"नायक" हर्षित हिय करो, माता के गुणगान।।15।।


(15गुरु, 18लघु वर्ण, नर दोहा)


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भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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५ - 


*"महत्तम माता ममता"*


(कुण्डलिया छंद)


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* गोदी माँ की चाहते, देव, मनुज, भगवान।


पालनहारे भी पले, माता का रख मान।।


माता का रख मान, जन्म धरती पर पाते।


पूरण करते काज, मातु का मान बढ़ाते।।


कह नायक करजोरि, कृपा माँ की मन-मोदी।


तरसे सकल जहान, पुनीता माँ की गोदी।।


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¶सह लेती हर कष्ट को, माता रहकर मौन।


जीती हित संतान के, माँ से बढ़कर कौन??


माँ से बढ़कर कौन? भान ईश्वर का जानो।


तेज-तपस्या-त्याग, रूप माँ का पहचानो।।


कह नायक करजोरि, समर्पित सुख कर देती।


माँ जीवन-आधार, दुःख चुपके सह लेती।।


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¶पावन माँ का नाम है, करती सबका त्राण।


सुख देती है दुःख हर, करती है कल्याण।।


करती है कल्याण, पुण्य पग पावन परिमल।


उमगत उदधि उदार, स्नेह शुचि निर्झर छल-छल।।


कह नायक करजोरि, ईश से बढ़ मनभावन।


प्रणतपाल प्रतिमान, पूज्य माँ-शुभ पद पावन।।


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¶ममता-मर्म महान-महि, मातु महत मणि मान।


मुकुलित-मुखरित मातु-मन, महके मनः मकान।।


महके मनः मकान, मोम-मन मानो-माता।


मान मातु-मंतव्य, मोद मानस-मुस्काता।।


मंगल (नायक) मुद मन-मोर, मुदित-मति मान-मचलता।


मोहक-मधु-मकरंद, महत्तम माता-ममता।।


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लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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काव्य रंगोली आज के सम्मानित रचनाकार सविता मिश्रा, वाराणसी उत्तर प्रदेश l

सविता मिश्रा


पुत्री :- श्री राम नारायण मिश्रा


जन्मतिथि :- 29 दिसम्बर 1982


शिक्षा :- परास्नातक


कार्य क्षेत्र :- शिक्षा, समाज सेवा और काव्य लेखन


मूल निवासी :- सुसुवाही, वाराणसी उत्तर प्रदेश


काव्य यात्रा :- 2 साल से


अनेक मंचों से काव्य पाठ, Facebook, whatsapp से ऑनलाइन कवि सम्मेलन,


 


कविता - 1


 


शीर्षक :- मेरी माँ 


 


जो अपने हृदय की गहराई में अपार प्रेम रखती है,


जिसमें हर रंग साफ दिखाई देता है,


जो सुख की छांव मे अपने बच्चों को हमेशा रखती है,


जिसके चरणों में स्वर्ग होता है l l 1 l l


जो फूल, खुशबू, रंग, प्रकाश पुंज, ममता का सागर है,


जो ठंडक, प्रेम, आशीर्वाद, उपहार है l


जो भगवान से भी बढ़कर हैं,


कोई नहीं उससे बढ़कर है l l 2 l l


जो हमें बहुत प्यार, दुलार करती है,


संवारती, सजाती और समझाती है l 


जिससे मेरी सुबह और शाम है,


मेरे लिए चारों धाम है l l 3 l l


जो मेरे जीवन का आधार है,


जिसके बिना नहीं मेरा कोई आधार है l


कोई और नहीं, कोई और नहीं, और नहीं,


वो तो मेरी माँ है..... मेरी माँ है... माँ है l l 4 l l


मेरे लिए पूजनीय हैं मेरी माँ,


मेरे लिए अद्वितीय है मेरी माँ l


मैं तेरी हूँ परछाई माँ, 


ये बात जग में है छाई माँ ll 5 ll


तू तो मेरा जहान है माँ,


तू तो मेरे जीने का अरमान है माँ l


मेरे जीवन रूपी बगिया में दो महकते गुलाब है,


उसमे से मेरी माँ एक महकता हुआ एक गुलाब है l l 6 ll


 


सविता मिश्रा, कवियत्री, वाराणसी उत्तर प्रदेश l


9129578209. 


 


 


कविता - 2


 


शीर्षक :- अपने और अपनों


 


ना धन का साथ चाहिए, ना ही दौलत का साथ चाहिए मुझे l


बस अपनों के हाथ का साथ ही चाहिए मुझे ll


क्योंकि अपने है तो मैं हूँ l


अपनों से ही मैं हूँ ll


अपनों से ही मेरा मोल है l


अपनों के बीच ही मेरा मोल है ll


अपने नहीं तो कुछ भी नहीं हूँ मैं l


अपने है तो सब कुछ हूँ मैं ll


अपनों से ही आधार है मेरा l


बिन अपनों के निराधार हैं मेरा ll


अपने तो है पूँजी मेरी l


बिन अपनों के नहीं हैं कोई पूँजी मेरी ll


जीना भी है अपनो के लिए मुझे l


मरना भी है अपनों के लिए मुझसे ll


यही एक जहान है मेरा l


यही एक जीने का अरमान है मेरा ll


 


सविता मिश्रा कवियत्री वाराणसी उत्तर प्रदेश l


9129578209.


 


कविता :- 3


 


शीर्षक :- रक्तदान.... महादान...


विषय :- रक्तदान दिवस (14 जून )


 


आओ मिलकर रक्त दान करें हम सभी,


लोकहित के लिए कुछ काम करे हम सभी l


रक्तदान है महादान...... महादान,


इससे मिलता है किसी को जीवन दान l


ना होती है कमजोरी और ना कोई थकावट,


इससे मिलती है हम सभी को राहत l


घर - घर संदेश है हमे पहुँचाना,


हर एक की जान है हमे बचाना l


रक्त की हर एक बूंद का है अर्थ,


इसे करे ना हम कभी भी व्यर्थ l


हर एक बूंद रक्त की है कीमती,


मिलता है किसी को पुनः जीवन कीमती l


रक्तदान से होता है जनकल्यान,


सबको दे बस हम यही ज्ञान l


सविता मिश्रा, कवियत्री, वाराणसी उत्तर प्रदेश l


9129578209.


 


कविता :- 4 


शीर्षक :- मेरा पिता


विषय :- पितृ दिवस (21 जून )


 


मेरी इज्जत, मेरी साहस, मेरा स्वाभिमान है मेरा पिता ,


मेरे लिए तो मेरा भगवान है मेरा पिता l


मेरी हर एक खुशी का आधार है मेरा पिता,


मेरी जीवन रूपी बगिया का महकता एक गुलाब है मेरा पिता l


सारे जहां से न्यारा है मेरा पिता,


मेरे लिए सुपर स्टार, सुपर मैन है मेरा पिता l


मैं उसकी बेटी हूँ मेरा है भाग्य,


वो मेरा पिता है मेरा है सौभाग्य l


करती हूँ मैं शत शत वंदन,


करती हूँ मैं कोटि कोटि अभिवंदन l


सविता मिश्रा, कवियत्री, वाराणसी उत्तर प्रदेश l


9129578209.


 


कविता :- 5


विषय :- पर्यावरण दिवस (5 जून ) 


शीर्षक :- पेड़ - पौधे लगाओ


पेड़ - पौधे लगाओ, पेड़ - पौधे लगाओ l


पर्यावरण को बचाओ, पर्यावरण को बचाओ ll


पेड़ हमारे मित्र है, यह संदेश जन - जन तक पहुँचाओ l


इसकी उपयोगिता से जन- जन को जाग्रत करो ll


पेड़ों से ही स्वच्छ व शुद्ध मिलती है हवा l


इसी से ही शीतल मिलतीं है छाया ll


ताजे फल - फूल - सब्जी भी देते हैं हमे l


जङी - बूटी - औषधि से स्वास्थ भी रखते हैं हमे ll


जन्म से मृत्यु तक हमारा साथ देते हैं l


अपना सब कुछ हम पर हो न्यौछावर कर देते हैं ll


पेड़ नहीं तो धरा पर नहीं जीवन होगा l


यह बार अब हम सभी को ही समझना होगा ll


आओ हम सभी पर्यावरण को बचाने का संकल्प लें l


एक एक पेड़ लगाने का ही हम सभी विकल्प चुने ll



9129578209.


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश

चिट्ठी न कोई ख़बर आ रही है......... एक ग़ज़ल 


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चिट्ठी न कोई ख़बर आ रही है, 


धड़कन हमारी ठहर जा रही हैं।


 


वो देती है मुझको वफ़ा की दुहाई,


वो तब से हरिक सू नज़र आ रही हैं।


 


सावन की रिमझिम फुहारें भी जैसे, 


जमीं पर गुलों सी बिखर जा रही हैं। 


 


वो ज़ुल्फ़ों की ज़ुल्मी काली घटाएँ,


जो रह रहके दिल के नगर जा रही है। 


 


मुझे जिनकी मुद्दत से जुस्तजू थी


वो आकर इधर अब उधर जा रही हैं।


 


दिल ने इबादत की रात और दिन, 


अब देखो तो वो किस क़दर जा रही हैं।


 


 


मौलिक रचना -


डॉ० प्रभुनाथ गुप्त 'विवश' 


(सहायक अध्यापक, पूर्व माध्यमिक विद्यालय बेलवा खुर्द, लक्ष्मीपुर, जनपद- महराजगंज, उ० प्र०) मो० नं० 9919886297


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*दोहा ग़ज़ल*


 


चापलूस के जाल में कभी न फँसना यार।


बाहर से मीठा बनत भीतर है तलवार।।


 


बहुत अधिक चालाक है चापलूस की जाति।


मूर्ख बनाने का मिला है इनको अधिकार।।


 


मन में विष थाली सजी बाहर अमृत भोग।


टपकाते हैं प्रेम से सब पर रस की धार।।


 


सदा खुशामद में मगन हिल-मिल करते बात ।


काम बनाने के लिये करते सरहद पार।।


 


अति विचित्र जीवन चरित सभी काम आसान।


काम बनाने के लिये जोड़त सारे तार।।


 


कलियुग में अतिशय सफल चापलूस की कौम।


अधिकारी की मालिकिन के ये पहरेदार।।


 


हाँ में हाँ करना सदा इनका असली कर्म।


इसी नाव पर बैठकर करते जीवन पार।।


 


पीछे-पीछे दौड़ना ही इनका है धर्म।


झूठ प्रशंसा को सदा देते हैं रफ्तार।।


 


घर को अपने छोड़कर अधिकारी के संग।


घुमा करता रात-दिन अधिकारी का सार।।


 


अधिकारी को चाहिये चापलूस की फौज।


इनके बल पर दौड़ती अधिकारी की कार।।


 


चापलूस की जिन्दगी का मत पूछो हाल।


इन पर पड़ती है नहीं अधिकारी की मार।


 


चापलूस बनना कठिन स्वाभिमान से दूर।


अधिकारी का करत है निशिदिन शाखोच्चार।।


 


रचनाकार:


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी


9838453801


डॉ0हरि नाथ मिश्र

त्याग-महात्म्य-2


तजि आलस कुरु बिनु फल-इच्छा।


सेवा-भाव त्याग कै सिच्छा ।।


   आलस त्यागि करहि जे करमा।


   निज गृह-काजु-दान-जगि-धरमा।।


लहहिं परम सुख अंतहिं काले।


अस जन प्रभु के भगत निराले।।


    परम दयालु-सुहृद,प्रभु-प्रेमी।


    करहिं श्रवन प्रभु-कथा सनेमी।।


अस जन त्यागी अहँ संसारा।


हरहिं अनाथ-कलेस अपारा।।


    बंधु-बांधवहिं,स्त्री-नौकर।


    सुत अरु सुता सबहिं कै होकर।।


एकहि भाव-सोच उर धारी।


सेवैं जस सेवहिं उपकारी।।


    पाठन-पठन-श्रवन प्रभु-लीला।


    करहिं त्यागि आलस गुनसीला।।


सकलै भोग लोक-परलोका।


मानि असत जग रहहिं असोका।।


    कबहुँ न माँगहिं अस बरदाना।


     करु प्रभु मोर अबहिं कल्याना।।


बरु चलि जाय प्रान अबिनासा।


पर नहिं माँगहिं भोग-बिलासा।।


    त्यागी जन जग जस प्रह्लादा।


    अगिनि प्रबेस कीन्ह अहलादा।।


दोहा-त्यागी माँगहिं कबहुँ नहिं, लोक औरु परलोक।


         भोग-बिलास न चाहि के,जग मा रहहिं असोक।।


                       डॉ0हरि नाथ मिश्र


                         9919446372


डॉ0हरि नाथ मिश्र

दोहा गीत(चीन के लिए चेतावनी)


भारत की प्रभुता अमिट, नहीं किसी आधीन।


हिंद-सैन्यबल अति सबल,बचकर रहना चीन।।


 


करो नहीं तुम मूढ़ता,सीमा को मत तोड़।


चाल तुम्हारी अति घृणित,अब ज़िद अपनी छोड़।।


पुनः किया गतिरोध तो, सत्ता लेंगे छीन।


हिंद-सैन्यबल अति सबल,बचकर रहना चीन।।


 


तेरी शोषण-नीति अब,नहीं करेगी काम।


तेरी झूठी शान का,होगा काम तमाम।।


सुनो खोल के कान तुम,नहीं हिंद है हीन।


हिंद-सैन्यबल अति सबल,बचकर रहना चीन।।


 


अब तो तेरी चीन सुन,नहीं गलेगी दाल।


समझ गया यह हिंद अब,तेरी टेढ़ी चाल।।


सीमा-रेखा लाँघ कर,कर न पाप संगीन।


हिंद-सैन्यबल अति सबल,बचकर रहना चीन।।


 


एक-एक को खींचकर, मारेंगे ये वीर।


समर-कला में निपुण अति, सब सैनिक गंभीर।।


विविध आयुधी-ज्ञान में,सेना सभी प्रवीन।


हिंद-सैन्यबल अति सबल,बचकर रहना चीन।।


 


तुम लोलुप,अति कुटिल तुम,यह तेरी पहचान।


मानवता को त्याग कर,मिथ्या धन-अभिमान।।


मानवता-उपकार ही, हिंद-मूल्य -प्राचीन ।


हिंद-सैन्यबल अति सबल,बचकर रहना चीन।।


               ©डॉ0हरि नाथ मिश्र


                   9919446372


प्रिया चारण उदयपुर राजस्थान

शीर्षक-जीवन जीने का सलीका


 


सुबह माँ की मीठी आवाज़ से


सुप्रभात हो सूर्य नमस्कार से


 


फिर एक सुबह का भ्रमण हो


जिसमे चारो दिशाओ का गमन हो


 


मंदिर में प्रातः काल नित् जाऊ


मस्जिद पर भी दुआ माँग आऊ


गुरुद्वारे का लंगर भी चख आऊ


चर्च की मोमबत्ती से जीवन जग मगाऊ


 


अपनी सोच को उच्च कोटि का बतलाऊ


पर आचरण में तनिक भी अभिमान न दिखलाऊ


 


अपनी माँ के चरणों मे जन्नत तलाशता


अपने काम पर हर रोज़ निकल जाऊ


 


बुजुर्गों से आशीर्वाद पाता,


में अपने वतन को न्योछावर हो जाऊ


 


ना कुबेर का खजाना बनाऊ


न नेता का ठिकाना बनाऊ


जितना मिले उसमे खुशी से जीवन बिताऊँ


 


सीधा सरल जीवन जीने का सलीका


में सबको बतलाऊँ


 


प्रिया चारण


उदयपुर राजस्थान


दयानन्द त्रिपाठी"दया"*

बढ़ गयी है पीर ऐसी


जख़्म सारे दिख रहे


पाप हो या पुण्य हो


हम सभी तो पीस रहे।


 


कौन कहता है तूँ बच गया,


देखने में एक-दूसरे के मजे हैं सध गया।


 


आज मानव स्वयं जिंदा लाश हो


टूट कर सभी अभिलाषाएं गिर रहे


आंधियों के तेज ध्वनि से 


अब दीप जीवन के बुझ रहे।


 


रात क्या और दिन क्या सब एक हैं,


बाग मुर्गे की भोर में नहीं लालिमा में लग रहे।


 


देख दया नयनों का ओट लिए


अंश्रू अवसाद में छलक रहे


चारों ओर फैले हलाहल को पी


सत्य शिव को समर्पित कर रहे।


 


सोचता हूँ यदि स्वप्न सारे सुख दे गये,


चीख कर क्या हुआ टूट कर बिखर गये।


 


*रचना - दयानन्द त्रिपाठी"दया"*


 


लक्ष्मीपुर, महराजगंज, उत्तर प्रदेश।


संजय जैन (मुम्बई

*खो न जाँऊ कही*


विधा : गीत


 


खो न जाँऊ कही,


अपने के बीच से।


इसलिए लिखता हूँ,


गीत कविता आपके लिए।


ताकि बना रहे संवाद,


हमारा आप के साथ।


और मिलता रहे सदा,


आप सभी का आशीर्वाद।।


 


दिल में जो आता है,


मैं वो लिख देता हूँ।


अपनी भावनाओं को,


आपके सामने रखता हूँ।


कुछ को पसंद आती है,


कुछ का विरोध सहता हूँ।


पर अपनी लेखनी को,


मैं निरंतर रखता हूँ।।


 


शिकायते है कुछ लोगों की,


तुम विषय पर नहीं लिखते हो। 


कृपा विषय पर लिखे,


और ग्रुप में प्रेषित करें।


पर बनावटी विचारों को,


मैं नहीं लिख पाता हूँ।


और उनकी आलोचनाओ का,


शिकार हो जाता हूँ।।


 


उम्र बीत जाती है,


अपनी छवि बनाने में।


यदि कदम डगमगा जाए,


तो रूठ अपने जाते है।


इसलिए मन की सुनकर,


मैं गीत कविताएं लिखता हूँ।


तभी तो यहां तक,


आज पहुंच पाया हूँ।।


 


जय जिनेन्द्र देव की


संजय जैन (मुम्बई)


17/07/2020


सत्यप्रकाश पाण्डेय

आँखें


 


मेरी आँखों की ज्योति 


तुमही आँखों का श्रृंगार


रहो सामने आँखों के


दे दो इतना सा उपहार


 


भर जाती हैं खुशियां


आँखें हो जाती खुशहाल


आँखों में पड़ती आँखें


मुझे लगता हुआ निहाल


 


जब दृष्टिपात होता है


झड़ते है आँखों से फूल


स्नेह की बारिश पाके


सारे गम जाता मैं भूल


 


छिपता न आँखों में


कटुता छिपी है या प्यार


आँखें नहीं सामान्य


है इनमें विस्तृत संसार।


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


भरत नायक "बाबूजी

चाणक्य नीति -----


(हिंदी दोहानुवाद)


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■बहूनां चैव सत्तवानां रिपुञ्जयः । वर्षान्धाराधरो मेधस्तृणैरपि निवार्यते॥


भावार्थ :


शत्रु चाहे कितना बलवान हो; यदि अनेक छोटे-छोटे व्यक्ति भी मिलकर उसका सामना करे तो उसे हरा देते हैं । छोटे-छोटे तिनकें से बना हुआ छप्पर मूसलाधार बरसती हुई वर्षा को भी रोक देता है । वास्तव में एकता में बड़ी भारी शक्ति है ।


 


★१- शक्ति संगठन में बड़ी, होती रिपु की हार।


ज्यों छत-तिनका रोक ले, वर्षा-तेज प्रहार।।


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■त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम् । कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यतः॥


भावार्थ :


दुष्टों का साथ छोड़ दो, सज्जनों का साथ करो, रात-दिन अच्छे काम करो तथा सदा ईश्वर को याद करो । यही मानव का धर्म है ।


 


★२- साथ सुजन रह तज कुजन, निशिदिन करो सुकर्म।


करो ईश-आराधना, यही मनुज का धर्म।।


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■जले तैलं खले गुह्यं पात्रे दानं मनागपि । प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारे वस्तुशक्तितः॥


भावार्थ :


जल में तेल, दुष्ट से कहि गई बात, योग्य व्यक्ति को दिया गया दान तथा बुद्धिमान को दिया ज्ञान थोड़ा सा होने पर भी अपने- आप विस्तार प्राप्त कर लेते हैं ।


 


★३- तेल-वारि खल को कथन, पात्र ज्ञान उपकार।


रहकर मात्रा अल्प भी, पा जाते विस्तार।।


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■उत्पन्नपश्चात्तापस्य बुद्धिर्भवति यादृशी । तादृशी यदि पूर्वा स्यात्कस्य स्यान्न महोदयः ॥


भावार्थ :


गलती करने पर जो पछतावा होता है, यदि ऐसी मति गलती करने से पहले ही आ जाए, तो भला कौन उन्नति नहीं करेगा और किसे पछताना पड़ेगा ?


 


★४- गलती करके बाद में, होता पश्चाताप।


कर्म-पूर्व यह सोच लो, होगी उन्नति आप।।


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■दाने तपसि शौर्ये च विज्ञाने विनये नये । विस्मयो न हि कर्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा॥


भावार्थ :


मानव-मात्र में किभी भी अहंकार की भावना नहीं रहनी चाहिए बल्कि मानव को दान, तप, शूरता, विद्वता, शुशीलता और नीतिनिपुर्णता का कभी अहंकार नहीं करना चाहिए । यह अहंकार ही मानव मात्र के दुःख का कारण बनता है और उसे ले डूबता है ।


 


★५- दान-शौर्य-तप-ज्ञान पर, कर न मनुज अभिमान।


कारण बनता दुःख का, अहंकार ही जान।।


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अनुवादक - 


भरत नायक "बाबूजी"


लोहरसिंह, रायगढ़(छ.ग.)


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एस के कपूर "श्री हंस"* *बरेली।*

*श्री गणेश गजानन।*


*करें स्तुति पावन।।*


 


श्री गणेश लंबोदर


विघ्नहर्ता भागे डर


अब रोज़ पूजा कर


*रिद्धि सिद्धि दो पुत्र*


 


श्री गणेश विनायक


हर दुःख सहायक


स्तुति बनाती लायक


*पहले पूजें मूरत*


 


दयावंत एकदंत


इनसे आरंभ अंत


पूजा करें साधु संत


*प्रातः देखें सूरत*  


 


मोदक का लागे भोग


शंकर पार्वती योग


प्रथम पूजते लोग


*पूर्ण हो जरूरत*


 


*रचयिता।एस के कपूर "श्री हंस"*


*बरेली।*


मोब। 9897071046


                    8218685464


नंदलाल मणि त्रिपाठी

जिंदगी एहसास अजीब


दोस्त दुश्मन के बीच गुजराती


दोस्त भी कभी नाम के।


मौका मतलब कस्मे वादे


दुश्मन कभी दोस्त दोस्ती का


मतलब समझाते।।


 


दोस्त कभी दुश्मन तो कभी 


दुश्मन दोस्त बन जाते।


जिंदगी में यकीन का सवाल


किस पे यकीन करे।


जिंदगी के सफ़र में मतलब का


हर रिश्ता हर रिश्ता कीमत का


सौदा।।


 


मौका परस्त इंसान जाँबाज


सरीखा।


मौके मतलब की नज़ाकत से 


नहीं वाक़िब इल्म का इंसान


नाकाबिल् जैसा।।   


 


कामयाब काबिल जिंदगी


मतलब मौके की तलाश


मौके पर मतलब का 


हथौड़ा।।


 


क़ोई मरता है तो मारने दो


कोई जलता है तो जलने दो


जिंदगी के जज्बे को जज्बा ही


रौंदता।।


 


खुद के दर्द गम की फ़िक्र नहीं


करती जिंदगी।


गैर की खुशियों के कफ़न ओढती


 मोहब्बत भी तिजारत धंधा।।


 


मोहब्बत से पहले ही जिंदगी


एक दूजे को फायदे नुक्सान


के तराजू पे तोलता।।


 


जिन्दंगी मतलब का जज्बा


जूनून खुदगर्जी की आशिक


अक्स अश्क की हद हसरत का मसौदा।।


 


मुश्किल है एक अदद मिलना


जिंदगी के सफ़र का सच्चा रिशता।


नफरत का दौर इस कदर हावी


नफ़रत में ही मोहब्बत का यक़ीन


जिंदगी के कारवां में भीड़ बहुत


फिर भी जिंदगी तनहा तनहा।।


 


ऊंचाई की परछाई यादो का सफ़र


तनहा ।


दुनियां के शोर में जिंदगी


अंधी दौड़ में भागती खुद के तलाश में खुद का पता पूछती


थक हार कर खुद का एतवार


कर लेती।।


 


चंद लम्हों में टूटता तिलस्म 


जहाँ रेविस्तान वहां बाढ़ 


जहाँ बाढ़ वहां रेगिस्तान।।


 


कभी बाढ़ शैलाभ तूफ़ान में


डूबती कभी रेगिस्तान में एक


बूँद को तरसती भटकती।।


 


कभी कश्ती लड़खाड़ाती भंवर


में फंस जाती डूबता इंसान संग


डूबने का करता इंतज़ार।।


 


किनारे पे खड़ी जिंदगियां सिर्फ


खुदा का करती गुहार कुछ कह


सुन लेती काश ऐसा होता काश


वैसा होता की चर्चा आम ।।


 


खुद के डूबने का अंदाज़ा ही नहीं


कब लड़खड़ा जायेगी हर उस जिंदगी की कश्ती जिसने ख्वाब 


बहुत सजाये हकीकत में जिंदगी


के लम्हे गवाए ।।                   


 


एक दूजे का खीचने में टांग जिन्दा जिंदगी को समझ के लाश।।


 


जिंदगी के लम्हे चार ,दो दूसरों के


लिये गढ्ढा खोदने में गुजर गए दो


खुद डूबने के डर की भय आह।।


 


जिंदगी में वक्त बहुत कभी कमबख्त वक्त की मार काश कश्मकश का अफ़सोस ।।


 


जिंदगी जागीर नहीं जिंदगी होश 


हद हकीकत का फलसफा जिंदगी उसी की जिसने जिया


दुनियां के दरमियान ।।           


 


ख़ुशी गम


में भी संजीदगी का संजीदा इंसान


का इल्म ईमान।।


 


क्योकि किस्सा है आम जिंदगी के सफर में गुजर जाते जो मुकाम


वो फिर नहीं आते ।।             


 


चाहे तो लो


गुनगुना गुजरा हुआ ज़माना आता नहीं दुबारा हाफिज खुदा तुम्हारा


की जिंदगी सरेआम।।


 


नंदलाल मणि त्रिपाठी पीताम्बर


सत्यप्रकाश पाण्डेय

चांद सितारों सी ज्योति 


जगमग किया है जीवन


हे युगलरूप ह्रदय भूप


तुमसे बड़ा न कोई धन


 


मोरमुकुट सिर शोभित


प्रभु कर में मुरली साजे


संत हिय के सौम्य हार


कण कण में छवि राजे


 


अवर्चनीय अनुरागनीय


अनन्त अभेद अभिराम


अमरपति अभिनन्दनीय


आजानु बाहु अभिधाम


 


ललित कीर्ति ललना की


सत्य लोचन करे निहाल


लिए लालिमा लाल की


सुख देते रहो नन्दलाल।


 


श्री युगलरूपाय नमो नमः💐💐💐💐💐🙏🙏🙏🙏🙏


 


सत्यप्रकाश पाण्डेय


नूतन लाल साहू

अब तो चेत जा


महाकाल के डमरू बाजत हे


कोरोना ह अडबड़ बाढ़त हे


देख ले तैहर,ध्यान लगाके


कहना बरजना ल काबर नइ मानत हस


कर ले मौन साधना,सावधानी के


आशा के ज्योति जलही, अंतस मन मा


मास्क लगाके, दुरी बनाके चल


नइ मानस त, तहु लाइन लगाले


महाकाल के डमरू बाजत हे


कोरोना ह अडबड़ बाढ़त हे


देख ले तैहर,ध्यान लगाके


कहना बरजना ल,काबर नइ मानत हस


सोचत सोचत जिनगी हा जाहरा होगे


अंधियारी परगे आंखी मा


रेंगत रेंगत भुला भुला गेव


कलयुग के किस्सा बताये रीहिस मोला


महाकाल के डमरू बाजत हे


कोरोना ह अडबड़ बाढ़त हे


देख ले तैहर,ध्यान लगाके


कहना बरजना ल काबर नइ मानत हस


गुरुवर गुरुवर हे गुरुवर


तिही हमन के भाग विधाता


तिही हमन के जीवन दाता


तिही हावस परमेश्वर


जिहा प्रभु राम के ममा गांव हे


जिहा माता कौशल्या के मइके हे


अइसन महतारी,मोर छत्तीसगढ़ मा


हमर जिनगी ल, बचाले तै हर


महाकाल के डमरू बाजत हे


कोरोना ह अडबड़ बाढ़त हे


देख ले तैहर,ध्यान लगाके


कहना बरजना ल,काबर नइ मानत हस


नूतन लाल साहू


राजेंद्र रायपुरी

दोहा छंद पर एक मुक्तक- - 


🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹🌹


सावन आया आ चलें, 


                     हम भोले के द्वार।


गंगा जल अर्पित करें,


                    और करें जयकार।


दर्शन तो शायद मिले, 


                मंदिर हैं सब बंद,


कोरोना का है कहर,


                चहु दिश अबकी बार।


 


             ।। राजेंद्र रायपुरी।।


सुनील कुमार गुप्ता

कविता:-


         *"अपने"*


"यथार्थ धरातल से जग में,


जूड़ पाते जो जीवन सपने।


सपनो की इस दुनियाँ में भी,


वो तो होते फिर से अपने।।


अपनत्व के अहसास संग फिर,


कुछ पल चलते साथी अपने।


जीवन पथ पर चलते- चलते,


कुछ तो सच होते सपने।।


स्वार्थ की धरती पर देखो,


कैसे-देख रहे वो सपने?


मोह-माया के बंधन संग,


कभी बन सके न वो अपने।।"


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः सुनील कुमार गुप्ता


sunilgupta.abliq.in


ःःःःःःःःःःःःःःःःःः 17-07-2020


डॉ0हरि नाथ मिश्र

क्रमशः...*प्रथम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-25


कुपित भयो ऋषि परसुराम जी।


जब धनु तोरे सिरी राम जी ।।


   तुरत पधारे जहँ धनु टूटा।


   लागहि परसु-क्रोध-घट फूटा।।


पूछहिं पुनि-पुनि धनु को तोरा।


वहि का दिन महि पे अब थोरा।।


    तुरतहि ऊ नर काल समाई।


    चलि न सकै अब कछु चतुराई।।


अब धरि संभु रूप बिकरला।


डारे संग ब्याल उर माला।।


    अइहैं आसुतोष जग माँहीं।


    यहि मा कछु संसय अब नाहीं।।


सिवसंकर करिहैं संहारा।


यही तथ्य जानै जग सारा।।


    करी प्रहार परसु अब मोरा।


   जाइ पहुँचि जग नासहिं छोरा।।


जे केहु यहि मा भंजनहारा।


तुरत उठै निज नाम पुकारा।।


दोहा-कुपित होइ लछिमन उठे,कहन लगे रिसियाय।


        नहीं कोऊ कोमल इहाँ, जे छूए मुरुझाय ।।


        लखन-क्रोध प्रभु राम लखि,भय बिनम्र धरि धीर।


        कर जोरे मुनि तें कह्यौ, मैं दोषी गंभीर ।।


मैं मुनि तव दोषी-अपराधी।


दंड देउ मोंहि समुझि गताधी।।


    मम सँग तव बंधन जग जानै।


    बेद-पुरान-सास्त्र जेहि मानै।।


जित देखहुँ उत प्रभुहिं प्रभावा।


अंड-पिंड-स्वेतज महँ पावा।।


    स्थावर-सुगंध प्रभु-बासा।


   रूप-रंग-मकरंद-निवासा।।


बिनु तव कृपा जीव जग नाहीं।


होहि मरन प्रभु आयसु पाहीं।।


   बरसहिं अवनि जलद घनघोरा।


   चमकहिं चंद्र-सूर्य चहुँ ओरा।।


बिनु तव कृपा राम भगवाना।


होंहि न जग कदापि कल्याना।।


    अस सुनि कथनहि परसुराम कय।


    समुझे भेदहि परम-धाम कय ।।


रूद्र रूप धरि परसु पधारे।


राम रूप धरि जनकहिं तारे।।


   रामहिं भेद परसु जब जाने।


    भय संतुष्ट न जाय बखाने।।


दोहा-परसु गयो रामहिं समझु,राम परसु कै नाम।


        दोनउ रूपहिं एक छबि,परसु कहौ वा राम।।


                 डॉ0हरि नाथ मिश्र


                   9919446372 क्रमशः.....


डॉ निर्मला शर्मा दौसा राजस्थान

बारिश का मौसम


बारिश का मौसम जब आये मन गाये मल्हार


तितली सा मन उड़ता फिरता देखे स्वप्न हज़ार


 


कण कण में अमृत रस बरसे सरसे पेड़ पहाड़


बारिश की नन्हीं बूंदों से सृजित हुई झनकार


 


तप्त धरा को जीवन देती प्राणदायिनी बरसात


नदी, तालाब, कुँए सब भर गए पानी हुआ अपार


 


मखमली हरियाली फैली चहुँ ओर छाया उल्लास


वन उपवन सब सुघड़ लगे हैं आया सावन मास


 


डॉ निर्मला शर्मा


दौसा राजस्थान


अवनीश त्रिवेदी 'अभय'

एक सामायिक कुण्डलिया


 


जीवन के इस दौर में, संकट बढ़ता जाय।


कैसे सब इससे बचे, सूझै नही उपाय।


सूझै नही उपाय, पेट भूखे है सारे।


महँगाई बढ़ रही, आय है राम सहारे।


कहत 'अभय' समुझाय, हौसला रखिए सब जन।


मानो हर कानून, बचेगा तब ये जीवन।


 


अवनीश त्रिवेदी"अभय"


 


प्रस्तुत है एक सावनी मत्तगयंद सवैया


 


सावन की ऋतु है मनभावन खूब फ़ुहार पड़े मनुहारी।


बादल छाइ रहे नभ में बरसे घनघोर घटा कजरारी।


कंत बिना उर चैन मिले नहि रैन न बीति रही अब भारी।


धीर धरी नहि जाति सुनो अब आइ हरौ दृग प्यास हमारी। 


 


अवनीश त्रिवेदी 'अभय'


सीमा शुक्ला अयोध्या

बंजर धरती पर फिर से हरियाली लाएं


फिर वसुधा पर रंग बिरंगे फूल खिलाएं।


 


कटे कोटि तरु कानन में अब छांव कहां?


पीपल बरगद वाला है अब गांव कहां?


वीरानी बगिया में फिर से वृक्ष लगाएं।


फिर वसुधा पर रंग बिरंगे फूल खिलाएं।


 


सूखे हैं खलियान नहीं खेती से आशा।


डूबा कर्ज किसान नित्य है घोर निराशा।


घन में घेरे घटा चलो सावन बरसाएं।


फिर वसुधा पर रंग बिरंगे फूल खिलाएं।


 


शुद्ध हवा हो नीर धरा सबको बतलाएं।


इस विपदा में एक दूजे का साथ निभाएं।


सभी लगाएं वृक्ष चलो सबको समझाएं।


फिर वसुधा पर रंग बिरंगे फूल खिलाएं।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


सीमा शुक्ला अयोध्या

घनघोर श्यामल ये घटा


नभ में अलौकिक छा गई।


रिमझिम गिरी बूंदे धरा,


ऋतु वृष्टि की है आ गई।


 


घन बीच चमके दामिनी,


वन में शिखावल नृत्य है।


तरु झूमती है डालियां,


वसुधा मनोरम दृश्य है।


 


झींगुर, पपीहा, मोर, दादुर,


ध्वनि हृदय हर्षा गई।


रिमझिम गिरी बूंदे धरा,


ऋतु वृष्टि की है आ गई।


 


कल कल करें पोखर नदी,


सनसन चले शीतल पवन।


गिरती सुधा रसधार बुझती


तप्त अवनी की अगन।


 


सुरभित धरा खिल खिल उठी


हर पीर मन बिसरा गई।


रिमझिम गिरी बूंदे धरा,


ऋतु वृष्टि की है आ गई।


 


तन को भिगोती बूंद ये,


मन भाव की सरिता बहे।


विरहन नयन में नीर हो,


कविमन सरस कविता कहे।


 


धानी चुनर ओढ़े धरा


सबके हृदय को भा गई।


रिमझिम गिरी बूंदे धरा


ऋतु वृष्टि की है आ गई।


 


सीमा शुक्ला अयोध्या।


सीमा शुक्ला अयोध्या

कृषक-व्यथा 


.................


 


आज कवि मन कह रहा है


कुछ व्यथा उनकी लिखूँ मैं ,


दर्द मे जीते सदा जो


कुछ कथा उनकी लिखूँ मै ।


 


अन्नदाता एक पल ,करते 


नही विश्राम हो तुम ,


शीत हो या धूप , वर्षा 


नित्य करते काम हो तुम !


 


चीर कर सीना धरा का 


अन्न के मोती उगाते ,


भूख सहकर भी स्वयं नित


इस जहाँ को तुम खिलाते !


 


तुम कृषक हो अन्नदाता


देश का आधार हो तुम !


कर्ज में डूबे हुए , हालात 


से लाचार हो तुम !


 


है टपकती छत न तुमको


रात भर है नींद आती ,


ब्याह बिन बेटी पड़ी घर


है सतत चिंता सताती ।


 


सोचता है कौन अगणित


दर्द जो करते सहन तुम ,


हार जाते हो अगर , सर 


बाँध लेते हो कफन तुम !


 


सुधि नहीं जिसकी किसी को


कुछ दशा उनकी लिखूँ मैं !


आज कवि मन कह रहा है


कुछ व्यथा उनकी लिखूँ मै !


 


सोचती हूँ क्या लिखूँ जो भी 


यहाँ मजदूर हो तुम ,


बेबसी जीवन तुम्हारा 


हाल से मजबूर हो तुम !


 


ये महल,अट्टालिका अपने 


करों से तुम बनाते ,


जिंदगी अपनी मगर तुम 


झोपड़ी में हो बिताते !


 


है लहू मिश्रित तुम्हारा 


जो बना संसार में है ,


बह रहा तेरा पसीना


खेत या व्यापार में है !


 


नित्य करते कर्म , सहते


दर्द हरपल तन तुम्हारे ,


पल रहे सुख,चैन के सपने 


कहाँ पर मन तुम्हारे !


 


धर्म क्या है , जाति क्या


इसकी नहीं परवाह तुमको ,


पेट भरने के लिए दो 


रोटियों की चाह तुमको !


 


हैं अनेकों स्वप्न लेकिन 


जिन्दगी भर तुम तरसते ,


गोद में माँ की सिमट कर


भूख से बच्चे बिलखते ।


 


हो कहाँ भगवन सुन लो 


हैं बड़ी दारुण व्यथायें ,


तुम हरो क्रंदन जहाँ के 


पीर , दुर्दिन की दशायें !


 


है द्रवित मन आज मेरा 


कुछ तृषा इनकी लिखूँ मैं ,


आज कवि मन कह रहा है


कुछ व्यथा उनकी लिखूँ मै !


दर्द में जीते सदा जो 


कुछ कथा उनकी लिखूँ मैं !


 


   सीमा शुक्ला अयोध्या।


डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

*दोहा ग़ज़ल*


 


माँ की ममता अप्रतिम नैसर्गिक अनुराग।


दिल के टुकड़े के लिये सहज समर्पण त्याग।।


 


शिशु की सेवा में सतत रहती है लवलीन।


शिशु को निरखत हर समय समझत अति बड़ भाग।।


 


शिशु ही असली संपदा भरता माँ की गोद।


शिशु को सीने से लिये गाती अमृत फाग।।


 


शिशु ही माँ की आत्मा शिशु पालन ही धर्म।


शिशु से खिलती चहकती है माता की बाग।।


 


शिशु अति प्रिय उपहार है ईश्वर का वरदान।


शिशु ही अमृत पर्व है शिशु ही दिव्य सुहाग।।


 


शिशु पा कर माँ अति सुखी उर में नित मधु भाव।


शिशु से माँ शोभावती शिशु प्रति अनुपम राग।।


 


रचनाकार:


डॉ०रामबली मि5हरिहरपुरी


9838453801


प्रिया चारण

अपनेपन का ढोंग रचा है ,


हर मनुष्य समय संग गिरगिट बना है ।


तस्वीर में साथ जो था कल तलक,


आज वो अनजान बन निकला है ।


 


कैसे कहु कोन अपना, कोन पराया ,


यहाँ पैसों के खातिर भाई-भाई का कातिल निलकला है ।


 


प्रिया चारण ,उदयपुर राजस्थान


 


 


 


हर शख़्स को परखना है


संकट में जो साथ न दे,


उसका विश्वास न करना है


बलिदान का समय निकल गया


अब बहिष्कार करना है


 


प्रिया चारण


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