डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-43

राम-कथन सुनि उठा बिभीषन।

कह कर छूइ मगन प्रभु-चरनन।।

     दीन्ह नाथ मोंहि आजु पियूषा।

     पियत जाहि मन मिटै कलूषा।।

अंगदादि सँग बानर-भालू।

रिपुनन्ह मारि बजावहिं गालू।।

       मारि-मारि तिनहीं भुइँ गाड़हिं।

       राम-कृपा हुलास बहु बाढहिं।।

निरखि गगन तें राम-कृपालू।

सिव सँग सुर सभ होंहि निहालू।।

      दातन्ह-लातन्ह-घूसन्ह बानर।

       मारि निसिचरिन्ह देहिं पछारन।।

कछुक त फारहिं उदर निसीचर।

कछुक काटि भुज पटकहिं महि पर।।

       काटि-काटि कपि निसिचर-मुंडा।

        तिनहिं लड़ा पुनि करहिं बिखण्डा।।

घन घमंड जिमि गरजन घोरा।

थूरहिं तिन्ह कपि गरजि कठोरा।।

       रुधिर-सनित कपि-भालु-सरीरा।

        कुपित काल बिकराल गँभीरा।।

लातन्ह रौंद-रौंद तिन्ह पीसहिं।

रपट-रपट निसिचरहिं घसीटहिं।।

       गाल फारि चीरहिं तिन्ह छाती।

       अँतड़ी पहिनहिं गरे सुहाती।।

काटउ-मारउ-पटकउ गूँजे।

इन्ह सब्दन्ह तें नभ-महि भीजे।।

      देखि बिकल बहु निसिचर रावन।

      रथ चढ़ि तुरत कीन्ह रन धावन।।

दस धनु धारि कहा दसकंधर।

भागहु नहिं लौटउ रन अंदर।।

      पाथर-तरु अरु लेइ पहारा।

      कपि-दल करई तेहि पे वारा।।

टूटि-फूटि सभ महि पे गिरहीं।

रावन बज्र देह जब परहीं।।

     अचलहि रहा ठाढ़ि रथ ऊपर।

     कुपित दसानन रहा बरोबर।।

मर्दन लगा कपिहिं जब धइ के।

त्राहि राम भागे सभ कहि के।।

दोहा-लखि के सभ भागत कपिन्ह,दसहु लेइ धनु-बान।

         रावन करि संधान झट,सायक उरग समान ।।

                        डॉ0हरि नाथ मिश्र

                         9919446373

सुनीता उपाध्याय

 कहूं बात मोहन       तुम्हें रात की।

कि शब भर तुम्हीं से मुलाकात की।

*****

कभी तो करो बात आकर मिलो।

करो कुछ कदर मेरे जज़्बात की।

*****

 मुहब्बत तुम्हें करना गलती लगे।

खुदी को है कैसी ये सौगात की।

*****

न तुमसे मैं जीतूँ कभी चाह है।

न चिन्ता मुझे है किसी मात की।

*****

सितम से तुम्हारे जिए  कैसे वो।

कि चोरी पकड़ ली तेरे  घात की।

*****

कन्हैया सुनीता पुकारे तुम्हें।

जरूरत तुम्हारी करामात की।

*****

सुनीता उपाध्याय

१५/१/२०२१

दयानन्द त्रिपाठी दया

 पौष मास में स्वागतम्, रवि करते हैं धनु परित्याग।

मकर राशि के अतिथि रवि, करते  हैं  पर्व सुराग।।


नववर्ष   का   नव  पर्व  है, मकर  संक्रांति   है   आज।

रहे चतुर्दश मास जनवरी, होय कभी पंच्चदश है राज़।।


बिहू, पोंगल, लोहड़ी, गंगा में स्नान  संग  मनें त्यौहार।

कहीं मनें तिला संक्रान्ति, उड़ें पतंगें रंग बिरंग हजार।।


मनभावन हरियाली फैली, नई फसल का लेवें स्वाद।

छायी खुशियां चहुंओर है, मिट  जायें  सारे  विषाद।।


खिचड़ी चटनी है बनी, है संग नींबू, मूली, दही अचार।

फैला मधुरिम संदेश जगत में, हो मानवता का व्यवहार।।


रहे एकता हिन्दुस्तान में, करें प्रगति सबका हो कल्याण।

सुख-दु:ख में सहभागी रहें, मिट जाय रोग-दोष हो अंगत्राण।।


कवि दया दें बधाई संग शुभकामना,  स्वीकारें सब  प्राण।

देशभक्ति  से  लबरेज़ सबजन, हो  मानव  में  भावप्राण।।


       दयानन्द_त्रिपाठी_दया



डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-42

सुभ अरु असुभ न सोचै रावन।

काम-लोभ-मद बिबस तासु मन।।

      महामत्त गज रावन-दल मा।

      गरजहिं जिमि कारे घन नभ मा।।

बिबिध प्रकार बाहन-रथ चलहीं।

भटहिं बिबिध माया मग करहीं।।

     लखि रावन-चतुरंगी सेना।

      कंपित-महि-गिरि-सागर-फेना।।

मारू राग बजावत चलहीं।

भट निज पौरुष चलत बखनहीं।।

     जब रावन बुलाइ अस कहहीं।

      मारउ जाइ रिपुन्ह जहँ रहहीं।।

हम मारब तापस दुइ भाई।

कउनउ बिधि हम सोचि उपाई।।

     मरकट-भालू काल समाना।

      उड़त चलहिं सपंख गिरि नाना।।

अस्त्रइ-सस्त्र तिन्हन्ह तरु-पर्बत।

नख अरु दंत जाइ नहिं बरनत।।

      निर्भय होंहिं चलहिं बलवंता।

       सुमिरत राम-नाम भगवंता।।

उन्मत गज रावन के हेतू।

रहँ केहरि प्रभु कृपा-निकेतू।

      दुइनिउ दल निज-निज अनुकूला।

      लागे लरन होइ प्रतिकूला।।

दोहा-आवत देखि निसाचरहिं, जस पिसाच अरु भूत।

         देत दुहाई राम कै, चले तुरत प्रभु-दूत ।।

                          डॉ0हरि नाथ मिश्र

                            9919446372

नूतन लाल साहू

 सादा जीवन उच्च विचार


जीवन,जितना सादा होगा

तनाव,उतना ही आधा होगा

योग करें या ना करें

लेकिन जरूरत पड़ने पर

एक दूसरे का सहयोग जरूर करें

समझ न पाया कोई भी

सफलता का राज

जरा जरा सी बात पर

क्यों रोता है, इंसान

अगर कुछ बुरा हो भी जाये

तो खो मत देना होश

दुःख भी मिलती हैं, हरि कृपा से

समय तुम्हें समझाय

तू तो अपना कर्म कर

काहे को घबराता है

तेरे हृदय में बैठा है

जग का पालनहार

जीवन,जितना सादा होगा

तनाव,उतना ही आधा होगा

नहीं लौटता है दुबारा

बीता हुआ पल

सोचने का ढंग,बदल लें

यदि है,सुख की चाह

अगर एक द्वार,बंद हो जाये

तो करना नहीं,मलाल

ऊपर वाला ने बना रखा है

और भी अनेको द्वार

भूत और भविष्य,भूलकर

हो,सादा जीवन उच्च विचार

तो तू अपने जीवन में,आंनद का

पा जायेगा,ताज

जीवन,जितना सादा होगा

तनाव,उतना ही आधा होगा

योग करें या ना करें

लेकिन जरूरत पड़ने पर

एक दूसरे का सहयोग जरूर करें


नूतन लाल साहू

विनय साग़र जायसवाल

 गीत


नयनों में वही  समाया है। जिसने संसार रचाया है।।


टुटे है भ्रम के ताजमहल 

हैं सुस्मृतियों में चरण कमल |

छूकर जीवन भी हुआ विमल 

हर अंधकार घबराया है 

नयनों में वही समाया है

 जिसने संसार रचाया है |।


स्वाँसो ने कितने किये भजन 

आंलिगन करती सुरभि पवन 

हर क्षण होता है महामिलन 

फिर नवप्रभात मुस्काया है |।

नयनों में वही समाया है

 जिसने संसार रचाया है |


यह मुझको भी अनुमान नहीं 

है कहाँ -कहाँ अनुदान नहीं

इस प्रश्न से अब व्यवधान नहीं 

क्या खोया है क्या पाया है ।।

नयनों में वही समाया है ।

जिसने संसार रचाया है |


है नाव फँसी भवसागर में 

जो बैठा है उर -गागर में 

है आस उसी नटनागर में 

उसने ही सदा बचाया है ।।

नयनों में वही  समाया है 

जिसने संसार रचाया है |


हर प्रश्न अधूरा -पौन यहाँ

बैठा है छुप कर  कौन यहाँ

हर आहट भी है मौन यहाँ

यह किस अनन्त की छाया है ।।

नयनों में वही समाया है 

जिसने संसार रचाया है


यह कैसी प्रेम -पिपासा थी 

हर आशा बनी निराशा थी

फिर भी मन में जिज्ञासा थी 

क्या उस विराट की माया है |।

नयनों में वही समाया है 

जिसने संसार रचाया है |


साग़र है इतनी सच्चाई 

जब आशा ने ली अंगडाई 

हर ओर खड़ी थी तन्हाई 

जीता मन भी पछताया है |।

नयनों में वही समाया है 

जिसने संसार रचाया है |


विनय साग़र जायसवाल

14/8/2001

डॉ0 हरि नाथ मिश्र

 *गीत*

                 मकर संक्रांति

उत्तम है चारोधाम से,स्नान गंगासागर।

 सब देव-लाभ ले लो,संक्रांति को जाकर।।


संक्रांति को दिनकर,होते हैं  उत्तरायण।

आशीष सूर्य के सँग,मिलती है नारायण।।


जाओ लगा लो डुबकी,दरिया-ए-हिंद में।

मिलती जहाँ है धारा,गंगा की  सिंधु  में ।।


ऐसा पवित्र संगम,कहीं और भी नहीं  है।

खोजे भी नहीं मिलेगा,जो धाम यहीं  है।।


ज्ञानी-तपी कपिल मुनि,जो चिंतक महान थे।

गंगा-मिलन-समुद्र के वे,अनुपम विधान थे।।


उनको करो नमन सभी,इस पर्व पर  जाकर।

सिंधु-गंगा-धार में,इस तन को  नहलाकर।।


मकर संक्रांति-पर्व सँग,भी लोहड़ी पावन।

यही हैं पर्व प्रेम के,मोहक सदा  भावन  ।।


खिचड़ी को बाँट खाओ,आपस में मिलाकर।

मिल दूरियाँ मिटाओ,मतभेद भी भुलाकर  ।।

                     ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

                      9919446372CG

मन्शा शुक्ला

 मकरसंक्रांति

विधा  छन्दमुक्त


परिवर्तन नियम प्रकति का

बदलती गति दिनकर की

प्रवेश करते मकर राशि में

हो  रहा  नवल  प्रभात

मनाते संक्रांति त्योहार।


लगाते डुबकी आस्था से

करते जप अर्चन ध्यान

वन्दना करते ईश्वर से

करते दान पुण्य काज

मनाने संक्रांति त्योहार।


तिल गुड़  सोंधी  सुवास

चुड़ा दही खिचड़ी अचार

खाते मिलजुल कर साथ

हृदय भर उमंग उल्लास

मनाते संक्रांति त्योहार।


प्रारम्भ हुँयेफिर से कार्य

शुभ  मुहूर्त शुभ  काज

रंग  बिरंगी  पंतगों  से

आच्छादित नभ आकाश

उड़ती पंतगे छुरही आकाश

मनाते   संक्रांति  त्योहार।


दिवस की मरजाद बढ़ी

ठंड शीत  सिमटने लगी

आम्र मौर देती आगाज

मन्द.मन्द बहती  पवन

दे रही   सन्देंश  यही

झूमता आ रहा बंसत 


संक्रांति , पोंगल  लोहड़ी

बीहू अनेक  रंग रूप नाम

मिलजुल कर सब साथ साथ

मनाते  संक्रांति  त्योहार।।

मन्शा शुक्ला

अम्बिकापुर

सुनीता असीम

 तू हौंसला ज़रा सा मेरे डर में डाल दे।

या तो उबार दे या तो चक्कर में डाल दे।

*****†*

मुझको दे नूर ऐसा कि आकाश भी कहे।

ऐसी चमक गगन के तू अख़्तर में डाल दे।

*******

तेरे बिना वजूद मेरा कुछ     भी तो नहीं।

अपना बना ले मुझको या ठोकर में डाल दे।

*******

गुणगान मैं तेरा ही करूंगी सदा सखे।

बस नाम आज से मेरा चाकर में डाल दे।

******* 

तेरा ही चारसू है नज़ारा   चमक रहा।

उसकी किरण तो एक मेरे घर में डाल दे।

*******

जंजाल में जगत के मुझे छोड़ना नहीं।

रख साथ में सदा या के गहबर में डाल दे।

*******

अपना बना ले या तो सुनीता को हमनवां।

या नाम अपना उसके तू रहबर में डाल दे।

*******

सुनीता असीम

१४/१/२०२१

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।।कल का सुंदर संसार,मिलकर आज ही संवार।।*


यदि बनाना है कल अच्छा तो

करो   आज    तैयारी।

यदि पहुंचना मंजिल  पर कल

तो करो आज  सवारी।।

भविष्य का निर्माण प्रारंभ  ही

वर्तमान से     होता है।

यदि रहना है कल को खुश तो

करो दूर आज बीमारी।।


तुम्हारी हर बात में हमेशा कुछ

गहराई होनी चाहिये।

तुम्हारे काम   में सदा  ही कुछ

भलाई होनी चाहिये।।

सुधार करते रहो हर गलती का

भी     तुम   साथ में।

टूटे रिश्तों   की भी   हमेशा से

तुरपाई होनी चाहिये।।


जीवन प्रभु का   दिया       एक

अनमोल सा उपहार है।

मूल उद्देश्य इसका रखना सबके

ही  साथ   सरोकार है।।

एक ही मिला है जीवन जो फिर

मिलेगा    न     दुबारा।

यही हो भावना कि सम्पूर्ण विश्व

एक ही तो परिवार है।।


मिलकर बनायों संसार जिसमें

बस अमन चैन सुख हो।

बस जाये ऐसा  भाई  चारा कि

किसी को न   दुःख  हो।।

भाषा संस्कार संस्कृति सबका

ही  होता रहे     संवर्धन।

दुनिया न   कहलाये    कलयुग

बस कल का ही युग हो।।

*रचयिता।।एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।।*

मोब।।।          9897071046

                    8218685464

*कलयुग ।।  कल्कि काल।। खराब युग*


*कल  युग ।।आधुनिक मशीनी युग(कल पुर्जे)*

निशा अतुल्य

 *श्री गणेशाय नमः*

*कान्हा मनुहार*

मनहरण घनाक्षरी

8,8,8,7 वार्णिक विधा

15.1.2021


राधा जी निहारे बाट ,

कान्हा जी आएँगे आज ।

थके नैन राह देखें

कान्हा कहाँ जाइए ।।


पंछियों के कलरव,

हर ओर करें शोर ।

कान्हा तुम गए कहाँ,

अब चले आइए ।।


मुरली की बजे तान,

गोपियों के जाए जान।

वृषभान लल्ली कहे,

लीला अब रचिए ।।


छुप छुप कान्हा डोले,

राधा जी के नैन बोले ।

कान्हा तू सताए काहे,

जरा कुछ कहिए ।।


स्वरचित 

निशा"अतुल्य"

विनय साग़र जायसवाल

 🌹ग़ज़ल ---🌹

मुफायलुन-फयलातुन-मुफायलुन फेलुन


ये सर्द रात है जुगनू दुबक रहे होंगे

हज़ारों दिल के दरीचे खटक रहे होंगे


मुझे यक़ीन है महफ़िल में उनके आते ही 

हरिक निगाह में वो ही चमक रहे होंगे


मैं सोचता हूँ हटा दूँ हया के पर्दों को 

वो मारे शर्म के शायद झिझक रहे होंगे


निगाहे-तीर से जो ज़ख़्म दे दिये तुमने

वो आज सोच तो कैसे फफक रहे होंगे


कभी महल जो बनाये थे हमने ख़्वाबों के

तिरे मिज़ाज से सारे दरक रहे होंगे


बुलंदी देख के जलते हैं जो भी लोग यहाँ 

हमारे क़द को वो बरसों से तक रहे होंगे


ग़ज़ल को सुन के बजाईं न तालियाँ जिसने

ये शेर ज़ख़्म पे उसके नमक रहे होंगे


तवील रात का जंगल है और तन्हाई

तिरे फ़िराक में *साग़र* सिसक रहे होंगे


🖋विनय साग़र जायसवाल

15/12/18

नूतन लाल साहू

 यांदे


खूबसूरत सा एक पल

किस्सा बन जाता हैं

जाने कब कौन जिंदगी का

हिस्सा बन जाता हैं

कुछ लोग जिंदगी में

ऐसे मिलते हैं

जिनसे कभी ना टूटने वाला

रिश्ता बन जाता हैं

कितनी सांसे शेष है

कोई जान न पाया

कल क्या होगा,क्या पता

भविष्य है अनजान

विधि के अटल विधान को

कोई बदल न पाया

भेदभाव और उंच नींच की भावना

मत रख इंसान

सभी मानव के खून का रंग

होता है लाल

खूबसूरत सा एक पल

किस्सा बन जाता हैं

जाने कब कौन,जिंदगी का

हिस्सा बन जाता हैं

जीवन के हर मोड़ पर

मिलते हैं संत अनेक

जुदा भले हो रास्ते

पर,मंजिल है एक

रामायण पढ़ी,गीता पढ़ी

पढ़ लिया,वेद पुराण

पर जिसने भी,पढ़ा

ढाई अक्षर,प्रेम को

वहीं पंडित बन पाया है

कुछ लोग जिंदगी में

ऐसे मिलते हैं

जिनसे कभी ना टूटने वाला

रिश्ता बन जाता हैं


नूतन लाल साहू

डॉ0 हरिनाथ मिश्र

 *षष्टम चरण*(श्रीरामचरितबखान)-42

रावन सरथ बिनू रथ रामा।

बिकल बिभीषन लखि छबि-धामा।।

     बिजय होय कस बिनु रथ नाथा।

      कहेउ बिभीषन अवनत माथा।

तन न कवच,न त्राण पद माहीं।

रथहिं बिहीन नाथ तुम्ह आहीं।।

     कहेउ राम तुम्ह सुनहु बिभीषन।

      देइ बिजय रथ दूसर महँ रन।।

सौर्य-धैर्य पहिया तेहि रथ कै।

सील-सत्य झंडा दृढ़ वहि कै।।

      दम-उपकार बिबेकइ जानो।

      होवहिं बाजि ताहि रथ मानो।।

छिमा-दया-समता तिसु डोरी।

रथ सँग नधे रहहिं सभ जोरी।।

      प्रभु कै भजन सारथी भारी।

       ढाल बिरागहिं, तोष कटारी।।

फरुसा दान,बुद्धि बल-सक्ती।

कठिन धनुष, बिग्यानहिं भक्ती।।

      होहि निषंग मन स्थिर-निर्मल।

      नियम अहिंसा,समन बान-बल।।

अबिध कवच गुरु-अर्चन होवै।

अस रथ होय त जुधि नहिं खोवै।।

दोहा-सुनहु बिभीषन धरम-रथ,रहहि अगर आधार।

         महाबीर ऊ जगत नर,सकै जीति संसार ।।

                     डॉ0हरि नाथ मिश्र

                       9919446372

*ग़ज़ल*

           *ग़ज़ल*

काश!लड़ते कभी मुफ़लिसों के लिए।

 होते न बदनाम,हादसों के लिए।।


खुश होता धरा का वो मानव बहुत।

जो बनाए भवन दुश्मनों के लिए।।


दिवस होगा वो बहुत मुबारक़ भरा।

आशियाँ जब मिले बेघरों के लिए।।


बेहतर तो है यह कि लड़ें रात-दिन।

किसी मज़लूम की ख्वाहिशों के लिए।।


चाँद-सूरज-सितारे जलें हर घड़ी।

दे सकें निज छटा कहकशों के लिए।।


ईद-होली-दिवाली पर मिलकर हम।

बाँटें खुशियाँ सब गमज़दों के लिए।।


चंद ही सिरफिरों की ही हैवानी।

देती मौक़ा सब साज़िशों के लिए।।

              ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

               9919446372

: *मधुरालय*

              *सुरभित आसव मधुरालय का*8

मधुरालय के आसव जैसा,

जग में कोई पेय नहीं।

लिए मधुरता ,घुलनशील यह-

इंद्र-लोक  मधुराई  है।।

        मलयानिल सम शीतलता तो,

        है सुगंध  चंदन जैसी।

        गंगा सम यह पावन सरिता-

        देता प्रिय  तरलाई  है।।

बहुत आस-विश्वास साथ ले,

पीता  है  पीनेवाला।

आँख शीघ्र खुल  जाती  उसकी-

जो रहती  अलसाई  है।।

       फिर होकर वह प्रमुदित मनसा,

       झट-पट बोझ  उठाता  है।

       करता कर्म वही वह  निशि-दिन-

       जिसकी क़समें खाई  है।।

यह आसव मधुरालय वाला,

परम तृप्ति  उसको  देता।

तृप्त हृदय-संतुष्ट मना  ने-

जीवन-रीति निभाई  है।।

        दिव्य चक्षु का खोल द्वार यह,

        अनुपम सत्ता  दिखलाता।

         दर्शन  पाकर  तृप्त हृदय  ने-

          प्रिय की  अलख  जगाई  है।।

प्रेम तत्त्व है,प्रेम सार  है,

दर्शन जीवन  का  अपने।

आसव अपना तत्त्व पिलाकर-

प्रेम-राह दिखलाई  है।।

       आसव-हाला, भाई-बहना,

        मधुरालय है  माँ  इनकी।

        सुंदर तन-मन-देन उभय हैं-

         दुनिया चखे अघाई  है।।

चखा नहीं है जिसने हाला,

आसव को भी  चखा नहीं।

वह मतिमंद, हृदय का  पत्थर-

उसकी डुबी  कमाई  है।।

       हृदय की ज्वाला शांत करे,

        प्रेम-दीप को जलने  दे।

        आसव-तत्त्व वही  अलबेला-

         व्यथित हृदय  का  भाई है।।

जग दुखियारा,रोवनहारा,

तीन-पाँच बस  करता है।

पर जब गले उतारे  हाला-

जाती जो भरमाई  है।।

      खुशी मनाओ दुनियावालों,

      तेरी  भाग्य में  आसव है।

      आसव-हाला  दर्द-निवारक-

       जिसको दुनिया पाई है।।

भाग्यवान तुम हो हे मानव,

बड़े चाव से स्वाद लिया।

तुमने इसकी महिमा जानी-

इसकी शान बढ़ाई  है।।

     मधुरालय को गर्व है तुझपर,

     जो तुम इससे प्रेम किए।

     झूम-झूम मधुरालय कहता-

     मानव जग-गुरुताई  है।।

                    © डॉ0हरि नाथ मिश्र

                       9919446372

 *सजल*

कैसे होगा बसर यहाँ,

रहे न किसी का डर यहाँ।।


करते सब मनमानी हैं,

कैसे होगा गुजर यहाँ??


नफ़रत की दीवारें हैं,

नहीं प्रेम का घर यहाँ।।


भाई-चारा गया कहाँ,

खोजें उसकी डगर यहाँ।।


सोच सियासी गंदी है,

जाएँ नेता सुधर यहाँ।।


काँटे बड़े विषैले हैं,

सब पर रक्खें नज़र यहाँ।।


शक्ति एकता में रहती,

सत्य सोच यह अमर यहाँ।।

       ©डॉ0हरि नाथ मिश्र

          9919446372

मकर संक्रांति आशुकवि नीरज अवस्थी


 

मकर संक्रांति के अवसर पर समस्त सहित्यप्रेमियो को सादर निवेदित चंद पंक्तियाँ~~
***********************
सप्त दिवस के अश्वों से युत,

रथ पर दिनकर चलते है।
मकर राशि में रवि प्रवेश की ,

नीरज रचना करते है।।


तिल-तिल करके दिन बढ़ने का,                     पर्व मकर संक्रान्ती का।

कटी पतँगों आओ मित्रों,                             पुनः लूटने चलते है।।


भास्कर की तरह तुम चमकते रहो।
दामिनी की तरह तुम दमकते रहो।
फूल गुलशन में लाखो है,तुम से नही।
तुम अमर पुष्प बन कर महकते रहो।।


आशुकवि नीरज अवस्थी  9919256950

लोहड़ी आशुकवि नीरज अवस्थी

 लोहड़ी


तिल खुटिया रेवड़ी मिले तापो खूब अलाव।

मन चंगा है गा मेरा सरदारा घर जाव।


भांति भांति के बन रहे उनके घर पकवान

हमे खिलाया प्यार से जैसे हम भगवान।


चाचा जी के लाड में चाची जी का प्यार।

नीरज नयना हो गए तुम सब पर बलिहार।

 

लोहड़ी बीते हर्ष से मन का मिठे विषाद।

बार बार है आ रही प्रीती तेरी याद।


आप को लोहड़ी की हार्दिक बधाई 

चित्र गूगल से साभार


आशुकवि नीरज अवस्थी 9919256950

राजेश कुमार सिंह "श्रेयस" लघुकथा

 #गद्य_ध्रुपद 43

#तब_रिश्ते_दिल_के_होते_थे l


जाड़ा रजाई  मे घुसने की भरपूर कोशिश कर रहा था और  रजेशर उसको रोकने के सारे यत्न किये जा रहा था l घुटनो को नाक तक ले जाने से लेकर, रजाई को लपेट लेने  तक  की पूरी कोशिश जारी थी l आसमान के  सारे तारे मैदान छोड़ कर भाग गए थे l सिर्फ शुकउआ [ शुक्र तारा ] सुबह होने का इंतजार कर रहा था l चरर मरर चरर मरर रर्रर्रर्रर्र की आवाज के साथ रजेशर की  नींद खुल गई l गन्ने के कोल्हू से निकली यह आवाज हर रोज रजेशर को  जगा देती l जुग्गन  काका और माही बो काकी गन्ने की पैराई करने हर रोज सुबह देवनंदन बाबू के कोल्हाड़े आ जाते थे l रजेशर के दोनों बैल गन्ने के कोल्हू के चारो और लगातार चक्कर लगा रहे थे l करीब एक कराहा गन्ने का रस आधा माधा खौल कर खदकने ही वाला था l  कराहे  से बरध महिया को काछती, माही  बो काकी को देख कर रजेशर अनायास बोल पड़ा,..काकी! सुगनी के  का हाल चाल बा ? बाबू ठीके बा , परसोईयें ससुरा से आइल हउवे l यह कह कर माही बो काकी सुबुकते हुए, अपने पल्लू से आँखों के आँशु  को पोछने लगी l 

  रजेशर को सब कुछ अच्छा नही होने का पूरा अंदेशा हो गया था l उसने माही बो काकी को जब बार बार कुरैदा तो माही बो काकी के दिल का दर्द उभर आया l काकी ने रजेशर से सारी बातें  बता दीं  l

सुगनी की शादी बचपन मे ही हो गई थी l बड़ी मुश्किल से शादी के दिन वह शादी के मंडप मे बैठ पाई थी, और आखिरकार शादी की दो तीन रस्म मे बाद वह सो भी गई थी l  दस बारह साल बाद  उसका गौना हुआ था और वह ससुराल चली गई थी  l मुश्किल से छः सात महीने वह ससुराल मे रह पाई थी l कल ही उसका पति उसे घर लेकर आया था  l आते वक्त सुगनी के ससुर ने साफ साफ बोल दिया था, कि अगली बार यदि बिना साइकिल के आई तो तुम्हें घर में  घुसने नही दिया जाएगा l 

   रजेशर देवनंदन बाबू का एकलौता बेटा था l जमींदार का बेटा होने के बावजूद भी उसके दिल मे गरीब, और मेहनतकश मजदूर के लिए बहुत  जगह थी l

   आज सुबह सुबह रजेशर,माही बो काकी के घर अपनी चौबीस इंच की साइकिल से पहुंच गया था l   रजेशर बाबू  को घर पर आया देख, सभी भोचक्के से हो गए थे l काकी ने बड़े प्यार से रजेशर को खटिया पर बैठाया, पीने के लिए डालिये मे  भेली का टुकड़ा और एक गिलास ठंडा पानी भी दिया l माही बो काकी ने  रजेशर बाबू से सुबह सुबह घर  आने का कारण पूछा l रजेशर ने जबाब मे  बस इतना ही कहा  कि वह  पाहुन से मिलने चला आया था  l कुछ देर रुकने  के बाद , रजेशर पैदल ही घर की तरफ जाने लगा  l अचानक सुघरी बोल पड़ी,.. ए  माई! रजेशर भईया से बोल दो कि साईकिलिया  तो  लेते जायँ l  , शायद वे  साइकिल को ले जाना  भूल गए हैं l  रजेशर यह सब बात सुन रहा था l अचानक पीछे मुड़कर,रजेशर ने जान बुझकर तेज आवाज बोला ताकि सुघरी का पति भी सुन ले ,..ए काकी! पाहुन से बोल देना  कि अब साइकिल को  वे लेते जायेगे, लेकिन आज के बाद सुघरी से यह कोई  नही कहेगा कि बिना साइकिल लाये वह ससुराल नही आएगी l 


©®#राजेश_कुमार_सिंह "श्रेयस"


लखनऊ, उप्र, ( भारत )

दिनांक 13-01-2021

डॉ. राम कुमार झा निकुंज

 दिनांकः ०९.०१.२०२१

दिवसः शनिवार

विधाः गीत

विषयः आओ   बढ़कर    कदम   बढ़ाएँ।

          मंजिल     हमें    पुकार    रही  है। 

शीर्षकः आओ   बढ़कर    कदम   बढ़ाएँ।

                  

हो मनुज जन्म भुवि तभी सफल 

आओ   बढ़कर    कदम   बढ़ाएँ।

नीति   प्रीति  नवनीत   मीत  बन  

राष्ट्र    प्रगति   नित   राह  बनाएँ।

                  आओ   बढ़कर    कदम   बढ़ाएँ।

                   मंजिल     हमें   पुकार    रही  है।

धीरज साहस सम्बल रखकर,

सद्मार्ग  खुला  जीवन्त बनाएँ।

आएँगी   बहुविध      बाधाएँ,

मिलकर पाषाणों  से टकराएँ।

                  आओ बढ़कर कदम बढ़ाएँ,

                  मंजिल   हमें  पुकार रही  है।

आते   हैं  दुर्गम  पथ  जीवन ,

संकल्पित हम  कदम बढ़ाएँ।

एकनिष्ठ  उद्देश्य  पथिक बन

मति   विवेक  से राह  बनाएँ।

               आओ बढ़कर कदम बढ़ाएँ,

               मंजिल   हमें  पुकार रही  है।

निर्माण   नवल  नित वर्तमान,

बस  सदाचार आदर्श  बनाएँ।

विश्वास  करें निज पौरुष बल

सुसंस्कार  जीवन    अपनाएँ।

               आओ बढ़कर कदम बढ़ाएँ,

               मंजिल   हमें  पुकार रही  है।

अटल  लक्ष्यपथ  यायावर बन,

दरिया  वन  गिरि  राह  बनाएँ।

तजे   नहीं   धर्मार्थ   कर्म पथ,

दृढ़ संकल्प ध्येय कदम बढ़ाएँ।

                  आओ बढ़कर कदम बढ़ाएँ,

                  मंजिल   हमें  पुकार रही  है।

स्वावलम्ब  हो  जीवन   दर्शन,

स्वाभिमान  मानक   अपनाएँ।

साथ  चलें    रणभेदी  निर्भय,

राष्ट्रभक्ति   मन शक्ति  बनाएँ।

                  आओ बढ़कर कदम बढ़ाएँ,

                  मंजिल   हमें  पुकार रही  है।

सत्कार्य  करें   परमार्थ   भाव,

प्रेरक   पथ    सत्संग    बनाएँ।

जाति   धर्म    निर्भेद  रहे  हम,

भारत माँ    जयगान    सुनाए।

                  आओ बढ़कर कदम बढ़ाएँ,

                  मंजिल   हमें  पुकार रही  है।

विश्वास  हृदय साफल्य लक्ष्य,

इच्छाशक्ति   हृदय     जगाएँ।

जनसेवा   बन  जीवन  दर्पण,

कठिन   परिश्रम  मीत बनाएँ,

                  आओ   बढ़कर    कदम   बढ़ाएँ।

                  मंजिल     हमें    पुकार    रही  है। 

आओ  मिलकर  करे सामना,

पथ  आँधी  तूफ़ान     भगाएँ।

हर विप्लव भूकम्प जलजला,

भेद   विपद  नव  राह  बनाएँ।

                  आओ    बढ़कर    कदम   बढ़ाएँ।

                  मंजिल     हमें    पुकार    रही   है। 

निर्माण  युवा  स्वर्णिम  भविष्य, 

सुनहर     हम   अतीत   बनाएँ।

लिख देश  भाल सुकीर्ति धवल,

वर्तमान   सुखद   स्वर्ग  बनाएँ।

                   आओ   बढ़कर    कदम   बढ़ाएँ।

                   मंजिल     हमें    पुकार    रही  है। 

आन   बान  सम्मान   भारती ,

विश्वश्रेष्ठ      गणतंत्र    बनाएँ।

अरुणाभ खुशी मुस्कान अधर,

अभिलाषा    नवदीप  जलाएँ।

                     आओ    बढ़कर    कदम   बढ़ाएँ।

                     मंजिल     हमें    पुकार    रही  है। 

शौर्य वीर    रण विजयी  बन,

ध्वजा  तिरंगा  मिल  लहराएँ।

शस्य   भरा  हरियाली वसुधा,

आओ   सत्पथ कदम बढ़ाएँ।

                       आओ   बढ़कर    कदम   बढ़ाएँ।

                       मंजिल     हमें    पुकार    रही  है। 

हम   साथ  रहें हम साथ चलें,

राह  कँटिल  हम सुगम बनाएँ।

जय किसान विज्ञान सैन्यबल,

नव गाथा  भारत  रच     पाएँ।

                        आओ   बढ़कर    कदम   बढ़ाएँ।

                        मंजिल     हमें    पुकार   रही   है। 

राष्ट्रवादी कवि✍️

डॉ. राम कुमार झा "निकुंज"

रचनाः मौलिक(स्वरचित)

नवदिल्ली

सुषमा दीक्षित शुक्ला

 ठंढ भी सुनती कहाँ 


उफ़ ये कम्प लाती सर्द का,

अलग अलग मिजाज है ।


बेबस ग़रीबो के लिए तो,

बस सज़ा जैसा आज है ।


कुछ वाहहह वालों के लिए ,

तो मौज का आगाज है ।


कुछ के बदन कपड़े नही ,

कुछ के सिरों पर ताज है ।


ठंढ भी सुनती कहाँ कब,

लाचार की आवाज है ।


है खोजता कोई निवाले ,

चारों तरफ से आज है ।


गुनगुने मखमल में कोई ,

भोगता  बस राज है ।


वही मौसम वही दुनिया ,

पर अलग ही अंदाज है ।


सुषमा दीक्षित शुक्ला

डॉ० रामबली मिश्र

 धैर्य चालीसा


सदा धैर्य की दिव्य विजय हो।

जय हो जय हो धैर्य अजय हो।।

धैर्य पंथ पर जो चलता है।

वही सफल मानव बनता है।।


संकट में धीरज धारण कर।

सब्र करो आनंद किया कर।।

धीरज ही संकटमोचन है।

महावीर हनुमानचरण है।।


करो धैर्य की नित्य प्रशंसा।

सदा धैर्य की हो अनुशंसा।।

धैर्य-धारणा सफल बनाती।

मानव को सुख-शांति दिलाती।।


सीखो आत्मनियन्त्रित रहना।

मन-विकार से दूरी रखना।।

सदा सन्तुलन सुखी बनाता।

सारे दुःख को मार गिराता।।


मन में दुःख-संकट मत पालो।

इनको मन से सतत निकालो।।

अच्छी सोच रखो नित मन में।

भय को देखो नहीं सपन में।।


द्वंद्वरहित अवसाद रहित बन।

दुःख दरिया के पार रहे मन।।

दुःख की कभी न चिंता करना।

ईश भजन नित करते रहना।।


बेसब्री का त्याग करो नित।

बन करके चलना इन्द्रियजित।।

सदा मारते रह दानव को।

मन में रहने दो मानव को।।


विचलन का तुम नाम न लेना।

स्थिरता को छोड़ न देना।।

मन में सुंदर विंदु बनाओ।

सदा सहजमय सिंधु नहाओ।।


बनकर चलते रहो साहसी।

विचलित हो मत बनो आलसी।।

अंधकार में कभी न फँसना।

आशालोक विचरते रहना।।


आशावादी बनकर जीना।

निश्चिंता की हाला पीना।।

निर्भयता का परिचय देना।

उद्वेगों से बचते रहना।।


दोहा:

विपदा में नित धैर्य से,करते रहना प्रीति।

अवसादों से मुक्ति की, यह अति सुंदर नीति।।


रचनाकार:डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी

9838453801

डॉ0 हरिनाथ मिश्र

 एक प्रयास

         *रोटी*

करतीं हैं बाध्य सबको केवल ये रोटियाँ,

घर-बार छुड़ा देतीं केवल ये रोटियाँ।

उद्योग-काम-धंधा कुछ करने के लिए-

करतीं सदा मजबूर केवल ये रोटियाँ।।


घर-बार छोड़कर ही जाते विदेश हैं,

सीता-सुरेश-सरला, नितिन-दिनेश हैं।

खटते हैं रात-दिन बस,पेट की ख़ातिर-

अपना वतन छुड़ातीं, केवल ये रोटियाँ।।


 है जाता कोई चीन, कोई जापान को,

कोई गया ब्रिटेन तो कोई ईरान को।

हर देश-वासी की है पसंद अमेरिका-

करतीं अलग उन्हें ,केवल ये रोटियाँ।।


दुर्भाग्य से जब फैलती है कोई बीमारी,

कोहराम मचाती है,पुरजोर महामारी।

होता शुरू है तब,घनघोर पलायन-

जिसकी हैं जिम्मेदार केवल ये रोटियाँ।।


देंखें तो हर शहर-नगर व गाँव में,

है खेलती सियासत हर ठाँव-ठाँव  में।

आरोप-प्रत्यारोप का होता गज़ब ये दौर-

अंदर हैं सूत्रधार केवल ये रोटियाँ।।


जब भाग-दौड़ करके,है लौटता श्रमिक,

पथ पर भटक-भटक कर आ जाता है पथिक।

तो उसके ठंडे चूल्हों को,दे-दे के गर्मियाँ-

झुलसातीं निज बदन को केवल ये रोटियाँ।।


श्रम का सही सबूत होतीं हैं रोटियाँ,

इंसान का वजूद भी होतीं हैं रोटियाँ।

बेकार है ये जीवन यदि पास में न रोटी-

करतीं हैं धन्य जीवन, केवल ये रोटियाँ।।

              ©डॉ0 हरि नाथ मिश्र

                  9919446372

वक्त मतदाता का है किस तरह काटें - दयानन्द त्रिपाठी व्याकुल

 वक्त मतदाता का है?


चुप रहें या बोलकर डांटें,

वक्त मतदाता का है किस तरह काटें।।


क्या कहें? कब कहें? किससे कहें?

कुछ कथ्य भी तो होना चाहिए

बात में सब बात मतदाता की है 

कोई तथ्य भी तो होना चाहिए ।


रश्मि खोजें तिमिर में बांटें,

वक्त मतदाता का है किस तरह कांटें।।


   कुर्सी की तरफ कैसे बहें

   छांव जब मतदाता का है

  अजनबी अभी बन नहीं सकते

गली-कूचे, शहर से गांव तलक मतदाता का है।


मुखौटे खोजें या चेहरे छांटें,

वक्त मतदाता का है किस तरह कांटें।।


गुनगुना रहे थे पांच साल 

चिड़िया की तरह शाख पर

छोड़ निष्प्रभ आलिशान पल,

सता रहे गुम हुए जाने का डर।


"व्याकुल" मन में दर्द है भरा

सब मौन, हतप्रभ शब्द की हाटें,

वक्त मतदाता का है किस तरह कांटें।।


चुप रहें या बोलकर डांटें,

वक्त मतदाता का है किस तरह काटें।।


     दयानन्द_त्रिपाठी_व्याकुल



विनय साग़र जायसवाल

 ग़ज़ल---


तेरे दिल का अब हमको हर काशाना मंज़ूर हुआ

तेरी ज़ुल्फ़ों के साये में मर जाना मंज़ूर हुआ


उठने लगीं हैं काली घटायें छलके  हैं जाम-ओ-साग़र 

ऐसे आलम में तुझको भी बलखाना मंज़ूर हुआ


महकी महकी गुलमेंहदी है चाँद सितारे भी रौशन 

ऐसे मौसम में उनको भी तरसाना मंज़ूर हुआ


लहराते हैं ज़ुल्फें हमदम हर पल अपने चेहरे पर

उनका फूलों सा हमको यह नज़राना मंज़ूर हुआ


चाहे जितनी घोल दे नफ़रत ऐ साक़ी पैमानों में 

मेरी चाहत को तेरा हर पैमाना मंज़ूर हुआ


ज़हर-ए-ग़म का जाम पिया है हमने उनके हाथो से

अपनी मौत का यार हमें यह परवाना मंज़ूर हुआ


मेरे नाम के साथ महकता हो उनका भी नाम अगर

मेरे खूँ से भी लिख दो तो अफ़साना मंज़ूर हुआ


उनके चेहरे पर रौनक़ है देख लो मेरी मय्यत में 

उनकी मर्ज़ी को शायद यह नज़राना मंज़ूर हुआ


लगवाते हैं बुत मेरा वो बाद मेरे मर जाने के

दुनिया वालों को अब देखो दीवाना मंज़ूर हुआ


*साग़र* हम भी आ जाते हैं आखिर दिल की बातों में

आज हमें पत्थर से शीशा टकराना मंज़ूर हुआ


🖋विनय साग़र जायसवाल

बहर-फेलुन × 7 +फा

काशाना-छोटा घर

एस के कपूर श्री हंस

 *।।रचना शीर्षक।।*

*।।हमारे बुजुर्ग,,,,दुआओं की* 

*सौगात है बुजुर्गों के पास।।*


क्षमा दुआ अनुभव  आशीर्वाद 

है बुजुर्गों    के  पास।

बहुत ही  जिम्मेदारी  अहसास

है बुजुर्गों   के  पास।।

छोटे बड़ों का ध्यान   और करें 

घर की रखवाली  भी।

संस्कृति,  संस्कारों  का वास है

बुजुर्गों        के  पास।।


बहुत  दुनिया    देखी   बड़ों  ने

उनसे  ज्ञान    लीजिये।

उन्होंने  किया    लालन  पालन

उन पर   ध्यान  दीजिए।।

उनके मान सम्मान से   संवरता

आपका भीअपना भाग्य।

आ जाता है चाल में  अंतर नहीं

उनका अपमान कीजिये।।


हर किसी  के लिए खूब जज़्बात

हैं   बुजुर्गों    के  पास।

अनुभवों की इक लंबी  बारात है

बुजुर्गों     के      पास।।

दिल है   दिमाग है     हर  बात है

पास    बुजुर्गों      के।

दुआओं ही दुआओं की   सौगात

है    बुजुर्गों  के   पास।।


पैसे की तो   बहुत   कदर है  इन

बुजुर्गों     के    पास।

बहुत ही ज्यादा   पारखी नज़र है

बुजुर्गों    के     पास।।

रखते  तजुर्बा हर मौसम  बरसात

का    बुजुर्ग    हमारे।

एक पूरी   जिन्दगी  का   सफर है

बुजुर्गों    के     पास।।


*रचयिता।। एस के कपूर "श्री हंस"*

*बरेली।।*

मोब।।            9897071046

                     8218685464

नूतन लाल साहू

 रहस्यमयी बातें


पानी में गिरने से

किसी की बन मृत्यु नहीं होती

मृत्यु तभी होती हैं

जब तैरना नहीं आता है

परिस्थितियां

कभी समस्या नहीं बनतीं

समस्या तभी बनती हैं

जब उनसे निपटना नहीं आता है

स्थिति कैसी भी हो

हम सब रहें खुशहाल

जीवन के हर मोड़ पर

करते रहे प्रयास

थोड़ा सा तो सब्र कर

मिल जायेगा लक्ष्य

कब क्या देना है तुझे

जानता है परमेश्वर

समस्या तभी बनती हैं

जब उनसे निपटना नहीं आता है

समय से पहले भाग्य

तेरे पास न आयेगा

भाग्य से अधिक तुझको

कभी नहीं मिल पायेगा

कष्ट विपत्ति में भी कभी

संत नहीं घबराता है

क्षीण चंद्रमा गगण में जैसे

बढ़ता ही जाता हैं

समस्या तभी बनती हैं

जब उनसे निपटना नहीं आता है

बीते को तुम भूल जाओ

और भविष्य है अनजान

वर्तमान में जिन्होंने जिया

वो ही बनता है महान

जिसके सर पर ईश्वर का

होता है आशीष

बाल न बांका कर सकें

जो जग बैरी होय

प्रभु जी रक्खे जिस हाल में

उसे ही मुकद्दर मान

मत लो पंगा,प्रभु जी से

अगला जन्म सुधार

समस्या तभी बनती हैं

जब उनसे निपटना नहीं आता है


नूतन लाल साहू

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दयानन्द त्रिपाठी निराला

पहले मन के रावण को मारो....... भले  राम  ने  विजय   है  पायी,  तथाकथित रावण से पहले मन के रावण को मारो।। घूम  रहे  हैं  पात्र  सभी   अब, लगे...